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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जाती कि उनका जनतापर कुछ भी प्रभाव न रह जाये, तबतक कांग्रेस ऐक्यके सम्ब न्धमें कुछ भी उपयोगी कार्य नहीं कर सकेंगी। मेरा कटु अनुभव तो यही है कि जो लोग ऐक्यका नाम लेते हैं, काम अनैक्यके ही करते हैं। यूरोपमें गत महायुद्धके समय असत्यका जैसा वातावरण फैला हुआ था, असत्यका वैसा ही वातावरण आज हमारे चारों ओर फैला हुआ है। यूरोपके समाचारपत्र उस समय कभी सच्ची बात लिखते ही न थे । विभिन्न राष्ट्रोंके प्रतिनिधियोंने झूठ बोलनेको एक उत्तम कलाका रूप दे रखा था। कहा जाता था कि युद्धकालमें अनुचित कुछ है ही नहीं। यह पुराना वचन कि जेहोवा बच्चोंके भी खूनका प्यासा है, अपनी पूर्ण बर्बरता के साथ दोहराया जाने लगा था। आज हमारा भी यही हाल हो गया है। हिन्दुओं और मुसलमानोंमें. एक छोटे पैमानेपर ही सही, जंग-सी छिड़ी हुई है। अपने धर्मको बचानेके लिए हम झूठ बोल सकते हैं और दगा भी कर सकते हैं, यह मुझसे किसी एक शख्सने नहीं मैं सैकड़ों मनुष्योंकी जबानी यही बात सुन चुका हूँ ।

लेकिन इसे लेकर निराश जरा भी होना नहीं चाहिए। मैं जानता हूँ, फूटका राक्षस अब आखिरी साँस ले रहा है। असत्यका कोई आधार नहीं हुआ करता । ऐक्यका अभाव एक असत्य वस्तु है | यदि लोग केवल अपने स्वार्थका ही विचार करें तो भी ऐक्य स्थापित हो सकेगा। मैंने आशा तो निःस्वार्थ ऐक्यकी कर रखी थी; लेकिन परस्पर स्वार्थके आधारपर भी यदि ऐक्य होता है तो मैं उसका स्वागत करूंगा। मौलाना साहब जिस रास्तेको अख्तियार करनेका संकेत करते हैं, ऐक्य उससे न होगा। ऐक्यको जब आना ही होगा, तब वह शायद ऐसे रास्तोंसे आयेगा जिनसे आनेकी हमें कोई आशा नहीं है। ईश्वरकी लीला अपार है। वह हमारी बुद्धि हर लेना, हमें हतबुद्धि कर देना तथा हमारे 'क्षुद्र छलों' को प्रकट करना जानता है। मृत्युका कोई लक्षण नजर नहीं आता तब भी वह व्यक्तिको कालके गाल पहुँचा देता है। जब जी सकनेका कोई आसार दिखाई नहीं देता उस समय वह जीवन प्रदान करता है। हमें केवल अपनी नितान्त असहायावस्थाको स्वीकार कर लेना चाहिए। हमें अपनी पूरी हार कबूल कर लेनी चाहिए। मुझे यकीन है कि हम लोग अपनी नम्रताकी धूलिमें से ही ऐक्यका अभेद्य दुर्ग खड़ा कर सकेंगे ।

मुझे अफसोस है कि मैं मौलाना साहबकी प्रार्थनाका इससे अधिक उत्साहप्रद उत्तर देनेमें असमर्थ हूँ। उन्हें यह जानकर ही सन्तोष मान लेना चाहिए कि ऐक्यके लिए वे स्वयं जितने आतुर है उसके लिए उतना ही आतुर मैं भी हूँ । ऐक्य हासिल करनेके उनके सुझाये हुए उपायोंमें यदि मुझे श्रद्धा नहीं है तो इसमें हानि ही क्या है ? मैं उनके कार्यमें किसी प्रकारकी बाधा न डालूंगा। मैं ऐक्यके लिए प्रत्येक हार्दिक चेष्टाकी सफलता के लिए ईश्वरसे प्रार्थना करूंगा। मैं इस दिशामें विकलता प्रकट नहीं कर रहा हूँ, इसका यह अर्थ नहीं है कि हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य मेरे जीवनका सिद्धान्त नहीं रहा। मैं यह पुनः घोषित करता हूँ कि मुझे उसमें अटल श्रद्धा है। भविष्यम आनेवाले ऐक्यके खातिर मुझे स्वयं उसका निर्माता बननेके सौभाग्यका भी त्याग कर देना चाहिए। जब मेरे बीचमें पड़नेसे घाव भरता नहीं है, बल्कि उससे तकलीफ