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१६. पत्र : शार्दूलसिंह कवीसरको

सत्याग्रह आश्रम

सबरमती

२६ नवंबर,१९२५

प्रिय मित्र,

आपका छपा हुआ पत्र मिला । मेरा तो यह मत है कि कैदियोंसे जो वचन माँगा जा रहा है, वे यदि वह वचन दे दें तो उनसे उनका कोई नुकसान नहीं होगा। मेरी रायमें आगे बढ़नेकी दिशा में गुरुद्वारा कानून एक बहुत बड़ा कदम है, और सिखोंके दृढ़ निश्चयसे किये गये सत्याग्रहका परिणाम है । जब मुख्य चीज हासिल हो गई, तो उक्त वचन, जिसे मैं नुकसानदेह नहीं मानता, कोई खास मसला नहीं है। लेकिन यदि कैदी हठ करें और किसी भी तरहका कोई वचन न दें तो उन्हें ऐसा करनेका अधिकार तो है ही। लेकिन उस हालतमें हमें उन कष्टोंकी शिकायत नहीं करनी चाहिए जो उन्हें झेलने पड़ सकते । मैं यह भी मानता हूँ कि उन्होंने सरकारी शर्तोंको स्वीकार न किया और फलस्वरूप लम्बी अवधितक अत्याचार सह लिये तो वे रिहा कर दिये जायेंगे । लेकिन जो काम में स्वयं नहीं करूंगा, उसे करनेके लिए जनतासे भी नहीं कहूँगा । मैं यदि सार्वजनिक रूपसे कुछ लिखूंगा, तो शर्ते हटा लेनेकी सलाह ही माननेकी बात लिखूंगा । परन्तु यदि कैदी वचन देने से इनकार करते हैं, तो मैं मन ही मन कष्ट सहनके लिए उनकी प्रशंसा करूंगा।

हृदयसे आपका,

सरदार शार्दूलसिंह कवीसर

निदेशक नेशनल पब्लिसिटी ब्यूरो

रामगली

लाहौर

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १०६६९) की फोटो-नकलसे।