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१७. पत्र : रसिकको

सत्याग्रह आश्रम

साबरमती

गुरुवार, मा [ र्गशीर्ष ] सुदी ११ [२६ नवम्बर, १९२५]

भाई श्री रसिक,

तुम्हारे प्रश्नोंके उत्तर ये हैं :

१. मृत्युके बाद श्राद्धकी जो क्रिया की जाती है वह निर्दोष है; और जो इसे मानते हैं उनके लिए आवश्यक हो सकती है । मृत्युके बाद जातिको भोज न देनेका तुम्हारा निर्णय उचित है। मैं जाति भोज देना अनावश्यक और अनुचित मानता हूँ। उसमें श्राद्ध-जैसी धर्म भावना नहीं है । यदि तुम्हारी माँ अपनी मृत्युके बाद जातिको भोज देनेके लिए कहे, तो तुम उसे नम्रतापूर्वक बताओ कि तुमसे ऐसी आशा न रखी जाये। यदि वह इसपर भी आग्रह करे तो जाति भोजमें खर्च होनेवाला पैसा लाचार व्यक्तियोंको अन्न देनेमें खर्च कर दो अथवा उतना पैसा जातिके ही किसी गरीब विद्यार्थीकी शिक्षाके लिए जातिको दे दो।

२. तुम यदि सचमुच विवाह नहीं करना चाहते और तुम्हारी माता इसका आग्रह करती है तो तुम्हें विनयपूर्वक इसे अमान्य कर देना चाहिए। मेरे मतानुसार माता-पिताओंको बच्चोंका विवाह जबर्दस्ती करनेका अधिकार नहीं है।

३. तुम खानपानमें सादगी बरतते हो तो तुम्हें इससे ब्रह्मचर्य पालनमें मदद मिलेगी। लेकिन मनमें मलिन विचारोंको उठनेसे रोकने के लिए तो सतत प्रयत्नपूर्वक ईश्वरकी अनन्य भक्ति, जैसे रामनामका जप आदि करना चाहिए और मन तथा शरीरको किसी परोपकारके कार्यमें अथवा निर्दोष व्यावसायिक कार्यमें लगाये रखना चाहिये ।

४. कुटुम्ब नष्ट हो जाये अथवा भूखों मर जाये तो भी तुम वहाँ कदापि नौकरी नहीं कर सकते जहाँ झूठ बोलना पड़े और छल करना पड़े। इन्हीं कारणोंसे मैंने अनेक बार कहा है कि स्वतन्त्र रहने के इच्छुक स्त्री अथवा पुरुषको बुनाई आदिका स्वतन्त्र धन्धा सीखकर उससे अपना पोषण करना चाहिए। मेरी मान्यता है कि कुटु- स्बियोंमें जो व्यक्ति शरीरसे काम कर सकनेमें समर्थ हो उसका पोषण करना बिलकुल धर्म ही नहीं है।

५. शारीरिक बलका. आत्मिक बलसे एक निश्चित सीमातक अवश्य सम्बन्ध है । शरीर अति क्षीण होनेपर भी आत्मा अत्यन्त तेजस्वी होनेके अनेक दृष्टान्त

१. साधन-सूत्रमें तारीख गुरुवार फरवरी ४, १९२५ दी गई है, लेकिन दिन और तारीख, आपसमें नहीं मिलते। अतः साधन-सूत्र में दिये गये संक्षिप्त हिन्दी महीने 'मा' से 'माघ' नहीं, ‘मार्गशीर्ष' हो समझा जा सकता है।