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मेरा यह उपवास

उसके मकानोंके लिए ही दो लाखसे अधिक रुपये दिये हैं। वे उसके सालाना खर्चके लिए प्रतिवर्ष कमसे-कम १८,००० रुपये देते हैं । वे यह रकम इस आशासे देते हैं कि मैं व्यक्तियोंका चरित्र निर्माण कर रहा हूँ। आश्रममें सयाने स्त्री और पुरुष रहते हैं। लड़के-लड़कियाँ भी हैं। लड़कियोंको यथासम्भव अविवाहित रहनेका प्रशि- क्षण दिया जाता है। आश्रम स्त्रियों और लड़कियोंको जितनी स्वतन्त्रता प्राप्त है, जहाँतक मेरा खयाल है, उतनी स्वतन्त्रता अन्यत्र नहीं होती। आश्रम मेरी एकमात्र और सर्वश्रेष्ठ कृति है। उसमें निष्पन्न परिणामोंसे दुनिया मेरी कीमत ऑकेगी । मेरी मर्जीके खिलाफ आश्रम कोई भी स्त्री या पुरुष, लड़की या लड़का नहीं रह सकता । मेरा विश्वास है कि वहाँ भारतवर्षके कुछ उत्तमसे-उत्तम चरित्रके लोग रहते हैं। जो मित्र इस संस्थाका पोषण कर रहे हैं यदि मुझे उनके पूरे विश्वासके योग्य बनना है तो मुझे बहुत चौकन्ना रहना चाहिए, क्योंकि वे आश्रमका न तो हिसाब देखते हैं और न उसकी हलचलोंपर ही नजर रखते हैं। मैंने लड़कोंमें दोष देखे, और थोड़े-बहुत लड़कियोंमें भी। मैं यह जानता हूँ कि जिस प्रकारके दोषोंका में जिक्र कर रहा हूँ वैसे दोषोंसे कोई शाला या संस्था शायद ही बरी होगी। मैं इस बातके लिए आतुर हूँ कि आश्रम उन दोषोंसे जो राष्ट्रके पुंसत्वका नाश कर रहे हैं और युवकोंके चारित्र्यबलको क्षीण कर रहे हैं, बरी रहे। आश्रममें छात्रोंको सजा नहीं दी जाती। मेरी देखरेखमें चलनेवाली दो शालाओंके अनुभवसे मैंने यह सीखा है कि सजा देनेसे कोई दोषमुक्त नहीं बन पाता। उससे यदि कुछ होता है तो इतना ही कि बच्चे अपने दोषोंके प्रति और भी आग्रही बन जाते हैं। इस प्रकारके अवसरोंपर मैंने दक्षिण आफ्रिकामे उपवास ही किये थे और मेरी रायमें उनका परिणाम भी अच्छा निकला था । यहाँ भी मैंने उसी मार्गका अनुसरण किया है और मुझे यह भी कहना चाहिए कि मेरे तथा आश्रमवासियोंके बीच पारस्परिक प्रेम ही इसका आधार है। मैं जानता हूँ कि लड़के और लड़कियोंको मेरे प्रति प्रेम है । और मैं यह भी जानता हूँ कि यदि में अपने प्राण देकर भी उन्हें पवित्र बना सकता हूँ तो इस प्रकार प्राण त्याग करनेमें मुझे आनन्द मिलेगा ।

इसलिए इन युवकों को उनकी भूल समझाने के लिए मेरा इससे कम और कुछ भी कर सकना सम्भव न था । अभीतक तो परिणाम भी आशाजनक ही जान पड़ रहा है।

यदि इसका कोई सुफल न निकले तो भी क्या होता है? ईश्वरकी इच्छा, वह जैसी कुछ मुझे प्रतीत होती है, के अनुसार ही काम कर सकना-भर मेरे हाथ में है। फल देना तो उसीके हाथकी बात है। छोटी या बड़ी कोई भी बात हो, उसके लिए स्वयं कष्ट उठाना ही सत्याग्रहकी कुंजी है।

प्रश्न उठ सकता है, प्रायश्चित्त शिक्षकगण क्यों न करें ? जबतक में प्रधान हूँ तबतक वे ऐसा नहीं कर सकते। यदि उन्होंने भी मेरे साथ उपवास किये होते तो सारा ही काम रुक जाता । जो बात बड़ी संस्थाओंके सम्बन्धमें है वही छोटी संस्थाओं के सम्बन्धमें भी है। जिस प्रकार एक राजा अपनी प्रजाके गुणोंके कारण गर्वका अनुभव करता है और उसका कारण अपनेको ही मानता है, उसी प्रकार उसे प्रजाके पापोंमें

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