प्रश्न किया जा सकता है कि ऐसी अवस्थामें में ऐसे अभिशापको सहन करने- वाले धर्मसे क्यों चिपका हूँ ? इसका कारण यही है कि मैं अस्पृश्यताको उस हिन्दू- धर्मका अनिवार्य अंग नहीं मानता, जो सत्य, अहिंसा और प्रेमका महान् धर्म है। मैंने हिन्दू शास्त्रोंको, कुछको मूलमें और बाकीको अनुवादोंकी सहायतासे, समझनेका प्रयत्न किया है। मैंने अपने नम्र तरीकेसे इस धर्मकी शिक्षाओंके अनुरूप जीवन बिताने- का प्रयत्न किया है। संसारके ईसाई, इस्लाम आदि अन्य महान् धर्मोका अध्ययन करनेके बाद मैंने हिन्दूधर्मको ही अपना सबसे सुखद आश्रय स्थान पाया है। मैंने देखा कि कोई भी धर्म सर्वांग सम्पूर्ण नहीं है। सभी धर्मोमें मैंने अन्धविश्वास और त्रुटियां पाई हैं। इसलिए मेरे लिए इतना ही काफी है कि मैं अस्पृश्यतामें विश्वास नहीं करता। किसी परिवार या जातिमें जन्म लेने मात्रसे ही कोई सीधा-सादा व्यक्ति अस्पृश्य हो जाता है, इस विश्वासका हिन्दू शास्त्रोंमें कोई प्रमाण मुझे नहीं मिल सका है। लेकिन यदि अपनेको हिन्दू कहते रहनेका मेरा आग्रह हो, जैसा कि है, तो जिस तरह मेरे देशके प्रति मेरा कर्त्तव्य है, उसी तरह अपने धर्मके प्रति भी मेरा यह कर्त्तव्य है कि मैं अपने मन-प्राणसे अस्पृश्यताकी इस विकृतिका विरोध करूँ और उसमें सुधार करनेके लिए चाहे बड़ीसे बड़ी कीमत चुकानी पड़े तो उसे भी अधिक न गिर्नू ।
पाठक यह न समझ बैठें कि इस दिशामें में ही एक सुधारक हूँ । ऐसे सैकड़ों शिक्षित भारतीय हैं, जो अपनेको हिन्दू कहनेमें गौरव मानते हैं, और जो अपनी पूरी शक्तिके साथ इस बुराईसे जूझ रहे हैं। सभी समझदार हिन्दुओंका यह एक मान्य सिद्धान्त है कि अस्पृश्यताका अभिशाप मिटाये बिना स्वराज्य नहीं मिल सकता ।
इस बुराईका मुकाबला करनेका हमारा ढंग यह है कि हम तथाकथित उच्च वर्गोंको इस दोषकी गम्भीरता समझाते हैं और आम सभाओं में इस प्रथाकी निन्दामें प्रस्ताव पास करते हैं। कांग्रेसने इस सुधारको अपने कार्यक्रमका अनिवार्य अंग बना लिया है। दलित वर्गोंके बच्चोंके लिए स्कूल खोलकर, कुएँ खोदकर, उनको अपनी वे बुरी आदतें जो उनमें उच्च वर्गकी अतिशय उपेक्षाके कारण रूढ़ हो गई हैं, बताकर और इसी तरहके अन्य काम करके दलित जातियोंकी दशा भी सुधारनेका प्रयत्न किया जा रहा है। जब कभी जरूरी लगता है, जैसे कि वाइकोममें, तो सत्याग्रहकी सीधी कार्रवाई भी काममें ली जाती है। इस अन्धी रूढ़िवादिताके विरोधमें हिंसाका प्रयोग कदापि नहीं किया जाता । धैर्यपूर्वक समझाकर और प्रेमपूर्वक सेवा करके लोगोंके हृदय परिवर्तनकी कोशिश की जा रही है। सुधारक अपने विरोधियोंको कष्ट देनेके बजाय स्वयं अपने उद्देश्यके लिए कष्ट सहते हैं ।
मेरा विश्वास है कि यह प्रयत्न सफल हो रहा है और शीघ्र ही हिन्दूधर्म अस्पृश्यताके दोषसे मुक्त हो जायेगा ।
[ अंग्रेजीसे ]
हिन्दू, १९-१-१९२६