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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उसमें मैंने जो लीखा था उसकी तपसील यहां देता हुं ।

आपने एक लाखका दान अ० देशबंधु स्मारकमें कीया उसकी स्तुति की और उसको यथाशक्ति शीघ्रतासे देनेकी चेष्टा करनेकी प्रार्थना की ।

पू० मालवीजी और पू० लालाजीको मैं साथ नहि दे सकता हूं उसका कारण बताया और मेरे उनके लीये पूज्य भावकी प्रतिज्ञा की ।

पं० मोतीलालजी और स्वराजदलको सहाय देता हुं क्योंकी उनके आदर्श कुछ न कुछ तो मेरेसे मिलते हैं। उसमें व्यक्तिगत सहायकी बात नहि है। और बातें तो बहोत सी लीखी थी परंतु इस समय वे सब मुझे याद भी नहिं हैं।

आप दोनोंका स्वास्थ्य अच्छा होगा।

मेरे उपवासकी कथा आपने सुन ली होगी। मेरे इस खत लिखनेसे हि आप समझ सकते हैं कि मेरी शक्ति बढ़ रही है। उमीद है कि थोड़े दोनोंमें मैं थोड़ा शारीरिक श्रम उठा सकुंगा ।

मैं ता० १० को वर्धा पहोंचुंगा। वहां कुछ दस दिन रहनेका मीलेगा ।

आपका,

मोहनदास गांधी

मूल पत्र (सी० डब्ल्यू० ६११४) से ।
सौजन्य : घनश्यामदास बिड़ला

३२. भाषण : गुजरात विद्यापीठके दीक्षान्त समारोहमें'

५ दिसम्बर, १९२५

जिन विद्यार्थियोंको आज उपाधियाँ और पुरस्कार मिले हैं उन्हें मैं बधाई देता हूँ। मैं उनके दीर्घायु होने की कामना करता हूँ। ईश्वर करे उनकी उपाधि और उनका ज्ञान उन्हें और उनके देशको गौरवान्वित करे। हमें अपने आसपास फैले हुए निराशाके अन्धकारमें अपना मार्ग भूल नहीं जाना चाहिए। हमें आशाकी किरण बाहरके वायु- मण्डलमें नहीं, बल्कि अपने हृदयके अन्दर ही ढूँढ़नी चाहिए। जिस विद्यार्थीमें श्रद्धा है, जो भयसे मुक्त हो गया है, जो अपने काममें जुटा है और जो अपने कर्त्तव्यके पालनको ही अधिकार मानता है, आसपासकी निराशाजनक स्थितिको देखकर वह हिम्मत नहीं हारेगा। वह यह समझेगा कि अन्धकार क्षणिक है और प्रकाश निकट ही है। असहयोग असफल नहीं हुआ है। जबसे सृष्टिकी उत्पत्ति हुई है तभीसे सहयोग और असहयोग चले आ रहे हैं। सत् और असत्, शान्ति और अशान्ति, जीवन और मरण आदि द्वन्द्व तो हैं ही। यदि हमें सत्यके साथ सहयोग करना है तो असत्यके

१. महादेव देसाईके विवरणसे उद्धृत ।