मुझे एक विषयपर टीका करनेकी इच्छा होती है। ऐसी शालामें नाट्यप्रयोग तो किये जा सकते हैं, लेकिन उनमें पोशाक खादीकी होनी चाहिए। जरीकी सजावटी पोशाककी तनिक भी आवश्यकता नहीं है। तिलक राष्ट्रीय विद्यालयमें सब पात्रोंकी पोशाक खादीकी थी। यहाँ भी शिक्षक वैसा ही कर सकते थे। हम जिस राष्ट्रीय प्रवृत्तिम रत हैं उसका विश्वास खादीपर है, अतः हमें ऐसे प्रसंगोंपर भी खादीका त्याग नहीं करना चाहिए। कला पोशाकमे नहीं; वरम् पात्रोंकी भाव प्रदर्शनकी शक्तिमें निहित है। लोग उनके अभिनयमें ऐसे लीन हो जाते हैं कि पोशाककी ओर कदाचित् ही देखते हैं। मुझे उम्मीद है कि आप भविष्यमें ऐसे अवसरोंपर शुद्ध खादीका ही उपयोग करेंगे। ऐसी छोटी-छोटी बातोंपर आग्रह रखनेसे ही हम बड़ी- बड़ी बातोंपर आग्रह रखना सीखेंगे। मेरी कामना है कि सब बालक दीर्घायु हों और देशके सच्चे सेवक बनें। मैं इस शालाकी उन्नति चाहता हूँ ।
[ गुजराती से ]
३९. पत्र : देवदास गांधीको
वर्धा जाते हुए
बुधवार [९ सितम्बर, १९२५]
तुम्हारी सेहत को देखकर मुझे चिन्ता होती है। इसके कारण महादेवके न
आनेकी बात भी मैं समझता हूँ। तुम्हारे वहाँ रहते हुए 'नवजीवन' के लिए महादेवके
रुकनेकी जरूरत क्यों होनी चाहिए? मैं यह अनुभव करता हूँ कि तुम अपने शरीरकी
अच्छी तरहसे देखभाल नहीं करते और अव्यवस्थित रहते हो, क्या मैं इस ओरसे
निश्चिन्त नहीं किया जा सकता ? तुम्हारा कुछ दिनों विश्राम कर लेना अच्छा
रहेगा। अवन्तिकाबाई तुम्हें पत्र लिखेगी । तुम उसके साथ रहो अथवा जैसा ठीक
लगे वैसा करो। मुझे पत्र लिखते रहना। मैंने स्वामीसे बात तो की है।
में मथुरादासके साथ बहुत समयतक बैठा। मैं उससे दो बार मिला। कल रात तो तीन घंटे बैठा। मीरा बहन ठीक है। जमना बहन साथ है। लालाजी मिले, कोई खास बात नहीं थी। सर देवप्रसाद अधिकारी भी मिले।
मैं तो ठीक ही हूँ। [अब ] सीढ़ियाँ चढ़नेमें भी मुझे कोई तकलीफ नहीं होती। सुन्दरलाल भी मिला ।
बापूके आशीर्वाद
गुजराती पत्र (जी० एन० २०४४) की फोटो-नकलसे ।
१. देखिए “ पत्र : वसुमती पण्डितको ", ६-१२-१९२५ ।