लगाया है। मेरी तबीयत अच्छी है। यहाँ २१ तारीखतक हूँ। यहाँसे २२ की सुबह रवाना होऊँगा और २३ को कानपुर पहुँचूँगा ।
आश्रममें रहने के सम्बन्धमें तुम जो लिखते हो वह सच ही है। मैं उसके बारेमे अन्तिम निर्णय कानपुरमें करूंगा। मेरी वृत्ति आश्रम में रहनेकी ही है। लेकिन "मुझे हरिजीने कच्चे धागे से बाँध लिया है और वे मुझे जिस ओर खींचते हैं मैं उस ओर ही खिंचता हूँ। ऐसी है मेरी स्थिति और हमेशा रहेगी भी ऐसी ही ।
गोधराके बारेमें जब में आश्रममे आऊँगा, तब विचार करेंगे। तुम अन्त्यज बालक मांगते हो सो मुफ्त शिक्षा देने के विचारसे ही न ? उनका सारा खर्च हम ही उठायेंगे । लक्ष्मीका मामला कठिन है। क्या तुम उसकी देखभाल रखनेका बीड़ा उठाओगे ? क्या तुम मुझे एक अन्त्यज बालक देनेके लिए तैयार हो ? फिलहाल तुम्हारे पास कितने विद्यार्थी हैं, तुमने यह नहीं लिखा। मैं तुम्हारा प्रचारक तो हूँ ही।
तुमने बालकोंको लेकर प्रदर्शन करनेका जो विचार किया है वह फिर कभी मत करना। उससे तो आश्रमका नाश ही हो जायेगा । आश्रममें रहनेवाले बालकोंके विकासको छोड़कर उन्हें अन्य बालकोंको आकर्षित करनेका साधन बनाना अनुचित होगा। तुम्हारा कार्य बालक जुटाते रहना कदापि नहीं हो सकता । तुम्हें तो एक बालक भी आये तो उसीको पढ़ाना है। तुम स्थानीय अन्त्यजोंसे सम्बन्ध रखो और उनकी यथाशक्ति सेवा करो, यह अलहदा बात है; लेकिन यह कार्य भी शिक्षाका हर्ज करके नहीं किया जाना चाहिए। बहुत पढ़ानेके लोभमें मत पड़ो। शिक्षाको निखारो, परिमाण तो आप ही निखर जायेगा। परिमाणपर ही आग्रह रखोगे तो उससे गुणका विकास तो होगा ही नहीं, परिमाण भी नहीं सधेगा ।
बापूके आशीर्वाद
गुजराती पत्र (जी० एन० ३८१२) की फोटो-नकलसे ।
४४. पत्रः फूलचन्द शाहको
सत्याग्रह आश्रम
वर्धा
मार्गशीर्ष बदी १०, [१९]८१ [१० दिसम्बर, १९२५]
में वर्धा आज ही पहुँचा हूँ। यहाँ ११ दिन रहूँगा।
छगनलालसे परिषद्का ११,००० रुपया जमा करवा देनेके लिए कह दिया है।
१. “ काचेरे तांतणे भने हरिजीए बांधी,
जेम ताणे तेम तेमनी रे । ”
- मीराबाई ।