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{{c|५२. पत्र: एक मित्रको

१२ दिसम्बर, १९२५

प्रिय मित्र,

'कवि' के लिए 'सर' का प्रयोग जानबूझ कर किया गया था । उद्देश्य था सही और जैसा चाहिए वैसा शब्दप्रयोग। कविने इस खिताबका परित्याग कभी नहीं किया। उन्होंने तो उससे बरी किये जानेकी मांग की थी और सरकारने उन्हें उससे बरी नहीं किया था।

हृदयसे आपका,

मो० क० गांधी

[ अंग्रेजीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।

सौजन्य : नारायण देसाई


५३. शरीरपर उपवासका असर

[१३ दिसम्बर, १९२५]

एक डाक्टर सज्जन हैं। वे कुछ परिस्थितियोंमें उपवासको उपयोगी मानते हैं। उन्होंने मुझे अपने उपवासके दिनोंमें जिन-जिन परिणामोंकी अनुभूति हुई है, उन्हें प्रकाशित कर देनेके लिए पत्र लिखा है। मैं डाक्टर महोदयके प्रस्तावको स्वीकार करता हुआ अपने अनुभवको सहर्ष प्रकाशित कर रहा हूँ क्योंकि वे पर्याप्त महत्त्वके हैं; और मैं यह भी जानता हूँ कि अनेक व्यक्तियोंने तो उपवास करके अपना नुकसान ही किया है। मैंने जितने भी उपवास किये हैं, करीब-करीब वे सभी नैतिक दृष्टिसे किये हैं, फिर भी भोजनके सम्बन्धमें एक अत्यन्त दृढ़ सुधारक होनेके नाते और उन्हें कुछ असाध्य रोगोंके निवारणमें उपयोगी होनेका निमित्त माननेके कारण उससे शरीरपर होनेवाले परिणामोंको मैंने नजर अन्दाज नहीं किया है। फिर भी मुझे यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि इसके सम्बन्धमें मेरा अवलोकन एकदम नीरन्ध्र नहीं है। इसका कारण सिर्फ यही है कि उन दोनों बातोंको एक साथ पूरा-पूरा देखना मेरे लिए असम्भव था। मैं उसके नैतिक मूल्यके विचारमें ही इतना व्यस्त था कि उसके शरीर-सम्बन्धी परिणामोंपर ध्यान देना सम्भव नहीं था । इसलिए मैं केवल मेरे मनपर उनकी जो सामान्य छाप पड़ी है केवल उसे ही दे पा रहा हूँ । उसके

१. यह लेख उपवास समाप्तिके बारहवें दिन लिखा गया था।