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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हैं। ज्यामिति आदि विषयोंका गुजरातीके माध्यम से पढ़ाया जाना भी विद्यार्थियोंके लिए कोई सामान्य लाभ नहीं । संस्कृत और हिन्दीपर भी जोर दिया जाता है। मुनीमीका विषय भी शिक्षाक्रम है। औद्योगिक शिक्षामें तकली और चरखा तो है ही; इसके अलावा मिट्टीका काम, बढ़ईगिरी, चित्रकला आदि विषय भी सिखाये जाते हैं ।

शिक्षकोंमें त्यागवृत्ति है। उन्होंने अपना वेतन स्वेच्छासे पन्द्रह प्रतिशत कम कर दिया है। प्रधान आचार्य तो अवैतनिक ही है। एक शिक्षा समिति भी है। श्री रेवा- शंकर जगजीवन झवेरी उसके प्रमुख है। समितिका हिसाब साफ रखा गया जान पड़ता है। जिस शालामें शिक्षा उदार है, शिक्षक देशभक्त हैं और पैसोंका हिसाब- किताब ठीक है, वांछनीय है कि जनता उस शालाकी मदद पैसोंसे और अपने बच्चोंको भेजकर करे ।

वहाँ सिर्फ एक बात ही टीका करने योग्य थी। नाटकोंमें अभिनयके समय पोशाक विदेशी कपड़ेकी थी; यह स्कूलकी प्रतिष्ठाम असंगत और दुःखजनक बात है। ऐसा करनेकी कोई जरूरत न थी। लोग नाटक देखने नहीं आये थे बच्चोंकी कुशलता- को समझने आये थे। नाटकोंमें जरी आदिके चमकते हुए परन्तु पारखी मनुष्य की आँखोंको न सुहानेवाले कपड़े पहननेका रिवाज है। लेकिन जहाँ बच्चोंमें ऊँची भावना- का विकास करना उद्दिष्ट हो वहाँ इसका अनुकरण कतई नहीं होना चाहिए। उनके सम्मुख तो शुद्ध आदर्शोंके अलावा और कुछ नहीं रखा जाना चाहिए। हैमलेटको विलायती पोशाक पहनानेकी जरूरत नहीं। हैमलेटकी पोशाक उसके समयकी अथवा हमारी अपनी कल्पना की होनी चाहिए। हम हैमलेटको अपनी देशी कल्पनाके अनुसार सजा सकते हैं। उसके भाव तो सार्वभौम हैं। वह मुगलोंकी पोशाक जैसी थी वैसी अथवा हमारी कल्पनाके अनुरूप हो सकती है। हमें खादी प्रिय है; यदि हम नाटक करते हैं तो उन सबमें भी खादीका ही प्रयोग होना चाहिए। मुझे तो किसी नाट्य- शालासे लाये गये पर्दे भी अखरे थे । मेरा वश चले तो मैं नाट्यशालाके पर्दोका भी उपयोग न करूँ; प्रत्युत खादीके कपड़ोंकी कोई कलापूर्ण योजना करूँ। लेकिन यह तो वहीं सम्भव है जहाँ कार्यकर्ताओंमें खादीके प्रति बहुत ज्यादा प्रेम हो और वे इन बातोंपर विचार करें । दोनों बातें राष्ट्रीय शालाके नेताओंमें न हों तो कहाँ होंगी? मेरी कामना है कि राष्ट्रीय शालाएँ भविष्यके भारतका आदर्श बतायें । वे गंगोत्री और जमतोत्री बने तथा उनमें शुद्ध विचार और शुद्ध आचारकी धाराएँ प्रवाहित हों ।

{{c|अकाल सहायता और चरखा

अवश्य ही अकाल पीड़ितोंके सहायतार्थ चरखेको उपयोग में लानेका इतिहास में यह पहला ही अवसर होगा। आतराई और बंगालके कुछ अन्य भागोंमें इस दिशामें पहल की गई है। उड़ीसा में जिन क्षेत्रोंमें बाढ़से भारी हानि हुई है, उनमें चरखेका सफल प्रयोग किया जा रहा है। वहाँ जो कार्य छोटे रूपमें आरम्भ किया गया है। वह बादमें और भी बड़े पैमानेपर चलाया जा सकता है। ऐसा ही प्रयोग दक्षिण