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५७. पत्र: पूँजाभाईको

मार्गशीर्ष बदी १३ [१३ दिसम्बर, १९२५][१]

भाई पूँजाभाई,

तुम्हारे पत्र सुन्दर होते हैं और मुझे नियमित रूपसे मिलते हैं। मैंने तुम्हें एक पत्र तो यहाँ पहुँचकर लिखा था। वह तुम्हें मिला होगा।[२] तुम प्रयत्न करके अपनी दृष्टिको विकारहीन बना ले सकोगे। प्रतिक्षण सावधान रहो। वाणीकी हिंसासे बचनेका मार्ग यह है कि कमसे-कम बोलो और बिना विचारे तो बिलकुल ही कुछ न कहो।

बापू के आशीर्वाद

भाई पूँजाभाई नाना
सत्याग्रह आश्रम
साबरमती, बी० बी० ऐंड सी० आई० रेलवे।

गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० १८६) तथा जी० एन० ४०१४ से भी।

सौजन्य : नारणदास गांधी

५८. पत्र : वसुमती पण्डितको

वर्मा

सोमवारकी रात [१४ दिसम्बर, १९२५]

चि० वसुमती,

तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारे वहाँ होनेसे मुझे बहुत सान्त्वना मिली है, क्योंकि इससे रामदासको कुछ आश्वासन तो मिल ही सकता है।

नीमू संस्कृत पढ़ती है और रामदासको संस्कृत नहीं आती तो इसमें बुराई क्या है? अपने पतिसे अधिक ज्ञान प्राप्त कर लेना भी क्या स्त्रीका दोष कहा जायेगा ? क्या पत्नीका पतिसे अधिक ज्ञान प्राप्त करना अनुचित है ? रामदास क्या ऐसा निकम्मा विचार करनेवाला पति सिद्ध होगा? रामदास तो स्वयं चाहता है कि नीमू संस्कृत पढ़े और सितार-वादन भी सीखे। अंग्रेजोंमें तो ऐसी अनेक स्त्रियाँ हैं जो अपने पतिकी अपेक्षा अधिक ज्ञान-सम्पन्न हैं किन्तु इससे उनमें घमण्ड नहीं उत्पन्न होता और न उनके पतिको भी लज्जा अनुभव होती है। सीतामें अधिक ज्ञान था या राममें, इसका

  1. १. ढाककी मुहरसे।
  2. २.देखिए "पत्र:पूँजाभाईको", १०-१२-१९२५।