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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यद्यपि यह पत्र सद्भावसे लिखा गया है और प्रथम बार पढ़नेपर यह तथ्य- पूर्ण मालूम होता है; फिर भी मैं इन भाइयोंकी सलाहके मुताबिक काम नहीं कर सकता ।

धर्मशास्त्र डंकेकी चोट कहते हैं कि विगुण होनेपर भी स्वधर्म अच्छा होता है। परधर्म भले ही उससे बढ़कर हो, लेकिन स्वधर्मपर चलते हुए मरना भी उचित है। परधर्मपर चलना तो भयावह है। यदि आज लोगोंको मेरी बात ठीक न लगे तो क्या मैं इससे मैदान छोड़कर भाग सकता हूँ ? 'असहयोग' की कल्पना तो मेरी अकेले ही की थी। मैं यह भी नहीं जानता था कि लोग उसको कितना स्वीकार करेंगे। मैंने जिसे धर्म समझा उसीके अनुसार कार्य किया और दूसरोंको भी वैसा ही करनेको कहा। उसकी ओर बहुत से लोग आकर्षित हुए। यदि आज उनका उसके प्रति आकर्षण नहीं रहा तो इससे क्या होता है ? क्या इस कारण मुझे अपना धर्म छोड़ देना चाहिए ? यदि मैं अपना धर्म छोड़ दूं तो उससे मेरी सेवा भावनामें बट्टा लगेगा । असहयोगमें मेरा विश्वास तो आज भी वैसा ही है जैसा उसके जन्मके समय था ।

चढ़ाव और उतार तो संसारमें आते ही रहते हैं। चढ़ावसे फूल जाना और उतारसे घबड़ाना क्यों चाहिए? जिसके हाथमें पतवार न हो वह अपनी नौकाकी दिशा भले ही बदले। मेरी नौकाकी पतवार मेरे वशमें है, इसलिए मैं तो निर्भय हूँ ।

जनतामें खादीका प्रेम कम नहीं हुआ है, बल्कि बढ़ा है। लोगोंमें खादीके प्रति जो मोह था वह खत्म हो गया है। और अब उनका खादी प्रेम ज्ञानमें परिणत हो गया है। देशमें इस समय खादीकी किस्म कुल मिलाकर सुधर रही है और उसकी खपत बढ़ रही है। मुझे यह प्रतीत होता है कि सरकारसे जिसका कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसी सार्वजनिक प्रवृत्तियोंमें इतनी जीवन्त प्रवृत्ति दूसरी कोई नहीं है। यह बात आँकड़ोंसे सिद्ध की जा सकती है। यह सच है कि कुछ जगहोंमें 'कातने और धुनने- का कार्य' बन्द हो गया है, फिर भी जितना सुसंगठित वह आज है उतना सुसंगठित गत चार वर्षोंमें कभी नहीं था ।

हिन्दुओं और मुसलमानोंका प्रश्न कुम्हारके चाकपर रखे मिट्टीके लौकी तरह है। यह ईश्वर ही जानता है कि उसका गोल बनेगा या गागर । लेकिन जनतामें जो असीम जागृति आई है उसे देखते हुए आजका परिणाम दुःखद होनेपर भी अजब नहीं है। सारा मैल सतहपर तैर आया है; इसलिए वही हम सब लोगोंको दिखाई दे रहा है। हिन्दू और मुसलमान आज जो बात समझानेपर भी नहीं कर रहे हैं, वे उसीको मजबूर होकर करेंगे। उनके लिए ऐक्यके सिवा दूसरा कोई मार्ग है ही नहीं और मैं इसीलिए इस सम्बन्धमें निश्चिन्त होकर बैठ गया हूँ। हमारे भाग्यमें और चार छः लड़ाइयाँ लड़नी बदी होंगी तो हम लड़ लेंगे । संसारके इतिहास में यह कोई नई बात न होगी। भाई-भाई लड़ते भी हैं और मिल भी जाते हैं। जब शान्ति- का युग आयेगा, तब लड़ना जंगलीपन मालूम होगा, लेकिन आज तो लड़नेकी गिनती सभ्यता में होती है।

१. श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मं निधनं श्रेयः परधर्मो भयावदः ॥