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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पूछनेका अवसर ही उपस्थित नहीं होना चाहिए। आप मेरे कहनेके अभिप्रायको ठीक- ठीक समझें। मैं यह कहना चाहता हूँ कि ऐसे सवाल मनमें तो अवश्य हैं, लेकिन हमें उन्हें अपने मनमें ही दबाना चाहिए। हजारों वर्ष पहले जब कुरुक्षेत्रमें युद्ध हुआ था तब अर्जुनको जो शंका हुई थी भगवानने उसका निराकरण 'गीता' द्वारा किया था। लेकिन यह कुरुक्षेत्रका युद्ध हमारे मनमें सदैव चलता रहता है और चलता रहेगा और हमारी अन्तरात्मा अर्थात् योगेश्वर कृष्ण जीवरूपी अर्जुनको दिशाका भान कराने के लिए सदा मिलते ही रहेंगे, तथा सदा ही आसुरी सम्पत्तिरूपी कौरवोंकी हार और दैवी सम्पत्तिरूपी पाण्डवोंकी विजय होगी। लेकिन जबतक यह विजय नहीं मिल जाती तबतक हृदयमे श्रद्धापूर्वक इस युद्धको चलने देना चाहिए और मनको शान्त रखना चाहिए। यह ठीक है कि किसीके भयसे अन्तःप्रेरणाको दबाये नहीं रखना चाहिए; लेकिन यदि अन्तःप्रेरणा यह पूछे कि ईश्वरको किसने पैदा किया तो शान्त रहना चाहिए, क्योंकि यह पूछना नास्तिकता है, ऐसा समझना चाहिए; हृदयसे ही उसका उत्तर मिल जायेगा, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए ।

ईश्वरने जो यह शरीर दिया है वह बन्दीघर भी है और मुक्तिका द्वार भी; और यदि हमें इसका उपयोग मुक्तिके द्वारके रूपमें ही करना हो तो हमें इसकी मर्यादा समझनी चाहिए। हमारी इच्छा आकाशके तारोंको अपनी बाहोंमें समेट लेनेकी भले ही हो; लेकिन हमें समझना चाहिए कि हममें वैसी शक्ति नहीं क्योंकि हमारी आत्मा पिंजरेमें बन्द है, उसके पंख कटे हुए हैं और वह जितना ऊँचा उड़ना चाहती है उतना ऊँचा उड़ नहीं सकती। इसमें अनेक सिद्धियोंको प्राप्त करने की शक्ति है; लेकिन वह सिद्धियाँ प्राप्त करनेके प्रयत्नमें मुक्तिको खो बैठती है। इसलिए मुझसे उस दिन जैसे अन्तिम प्रश्न पूछे गये थे वैसे अमूर्त प्रश्नोंका पूछना बन्द कर दिया जाना चाहिए। यह निश्चय रखना चाहिए कि धीरे-धीरे अन्तरात्माको अपनी शक्तिसे ही इन प्रश्नोंका उत्तर मिल जायेगा। ऐसे अति प्रश्नोंकी चर्चा करनेके बजाय तो इस वचनके अनुसार आचरण करना चाहिए कि 'आजका लाभ लो; कल किसने देखा है।' यह वचन चार्वाकके वचन-जैसा लगेगा। चावार्कने कहा था । 'यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ॠणं कृत्वा घृतं पिबेत्, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनम् कुतः ;' लेकिन पहलेका वचन चार्वाकका वचन नहीं है। वह तो भक्तोंका वचन है। 'आजका लाभ लो' कहने से उसका मतलब है, हमारे सामने आज जो कर्त्तव्य है, हम उसे पूरा करें; क्योंकि हम कल रहेंगे अथवा नहीं यह कौन जानता है; हालाँकि वहीं आगे यह कहा गया है कि पुनर्जन्म होगा । उस दिन विनोबाने समझाया था कि यह कर्त्तव्य है, 'दुःखतप्तानाम् प्राणिनामातिनाशनम्', समस्त पीड़ित प्राणियोंकी पीड़ाका --जन्म- मरणके बन्धनोंका -नाश। इसका एक ही साधन है - भक्ति । इंग्लैंडके एक भक्त पुरुष न्यूमैन कह गये हैं, 'मेरे लिए एक पग आगे बढ़ना ही पर्याप्त है।' लगता है, मानो इस छोटी-सी पंक्ति में सारा दर्शन भरा हो । यह एक पग है धैर्ययुक्त निश्चयात्मक भक्ति । यदि बीमार आदमी एकदम उठकर सीढ़ियोंसे उतरने लगे तो चक्कर खा कर नीचे गिर पड़ेगा। यदि हम अपनी मर्यादा न समझें और मर्यादाके बाहर ज्ञान प्राप्त करें तो वह हमें पचेगा नहीं; हमें ज्ञानका अजीर्ण ही हो जायेगा।