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भाषण : वर्धाम

इसलिए हम जिस अति प्रश्न पूछनेके रोगसे पीड़ित हैं, हम अपनेको उससे मुक्त कर लें, आजका कर्त्तव्य करें और प्रश्नोंका पूछना मुल्तवी रखें। आज जिस भजनके एक दो चरण गाये गये हैं उनमें भी यही बात कही गई है । हम मुक्ति-मुक्ति न करें, भक्ति ही करें। भक्ति बिना मुक्ति नहीं मिल सकती। इसलिए जो कर्त्तव्यपरायण रहता है, जो मनमें भक्ति रखता है उसीको मुक्ति मिलती है. - मुक्ति उसीको मिलती है जो उसका खयाल भी नहीं करता।

भक्तिका अर्थ व्यवहार-मूढ़ता नहीं । जिस भक्तिसे व्यवहार-मूढ़ता आए, वह भक्ति नहीं । हाँ, यदि हमारे व्यवहारको देखकर जगत हमें मूढ़ कहे तो यह अलग बात है। भक्त तो व्यवहारमें सजग रहता हुआ भी उसमें भक्ति भर देता है। भक्तका आचार धर्मानुकूल होगा। ऐसे आचारको कृष्णने साध लिया था, इसीलिए वे पूर्णावतार माने गये। भक्तको व्यवहारमें कोई मुश्किल नहीं होती।

ऐसे धर्मानुकूल आचारका प्रचार हो इसके लिए आश्रमोंकी स्थापनाकी जाती है। इस आश्रमकी मार्फत हम देश और धर्म, दोनोंकी उन्नतिको साधेंगे; मैंने तो यह आशा बाँध रखी है। यह आशा आज ही पूरी हो अथवा अनेक जन्मोंमें पूरी हो, इसकी परवाह नहीं। हम तो अपने निश्चित मार्गपर चलते हुए अपने कर्त्तव्यका पालन करते जायें, हमारे लिए यही पर्याप्त है। इसके लिए हमारी साधना ब्राह्मणत्व '- सत्य और श्रद्धा तथा क्षत्रियत्व - शक्ति और अहिंसा, इन दोकी होनी चाहिए। मुझे विश्वास है कि इस आश्रमकी मार्फत इन दोनोंकी साधना होगी; अन्य आश्रमोंमें नहीं होगी, मैं यह नहीं कहता। इस आश्रमसे तो श्रेय होगा ही, ऐसी मेरी मान्यता है । सत्य और अहिंसाका स्वरूप हमारे लिए आज क्या है उसे समझकर उनका आचरण करें और जगतमें किसी भी सिद्धान्तमें अपवादकी गुंजाइश नहीं होती, ऐसी श्रद्धा रखें तो हम अन्तिम सत्य और अन्तिम अहिंसाको खुद-बखुद समझ जायेंगे।

मैंने ऊपर जिस कर्त्तव्यकी चर्चा की है उसका यहाँ पालन होता देखकर दस दिनों में मैंने जैसी शान्तिका अनुभव किया है वैसी शान्ति मुझे कहीं नहीं मिली है और इस शान्तिको छोड़कर अब फिर अशान्तिमें प्रवेश करते हुए मेरे मनमें क्या भाव उदित होता होगा, आप इसकी कल्पना कर सकेंगे। लेकिन जैसा मैंने एक मित्रसे कहा था, यदि हम बाहरकी अशान्तिसे घबरा जायें तो हमारा गीताभ्यास व्यर्थ है, हमें शान्ति बाह्य वातावरणसे नहीं, बल्कि अपने अन्तरसे प्राप्त करनी चाहिए और इसीलिए मुझे इसकी तनिक भी चिन्ता नहीं है।

[ गुजराती से ]

नवजीवन,२७-१२-१९२५