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७५. पत्र : शास्त्री महाशयको

२१ दिसम्बर, १९२५

प्रिय शास्त्री महाशय,

मेरे सामने सवाल यह था कि मैं सीधे गुरुदेवको लिखूं कि रामानन्द बाबूको या आपको । अन्तमें मैंने आपको लिखनेका फैसला किया। अब मैं इस पत्रको गुरुदेव तथा रामानन्द बाबूको दिखा देनेका काम आपपर छोड़ता हूँ ।

'मॉडर्न रिव्यू' में प्रकाशित चरखेपर लिखा रामानन्द बाबूका लेख मैंने पढ़वा कर सुना। मुझे कहना पड़ेगा कि उससे मुझे गहरा दुःख हुआ । मैं जानता हूँ कि उन जैसा सज्जन व्यक्ति जानबूझकर किसीको गलत नहीं समझेगा। यह मेरा दुर्भाग्य है कि जो कुछ मैंने अपने विचारमें शुद्धतम भावनासे लिखा है उसे उन जैसे व्यक्तिने भी किसी अन्य भावनासे लिखा गया समझा । यदि गुरुदेवने भी मेरे लेखको वैसा ही समझा हो तो मैं अपनेको कभी क्षमा नहीं कर पाऊँगा ।

अपनी ही स्थिति स्पष्ट करके शान्तिनिकेतनके प्रत्येक मित्रसे उस स्पष्टीकरण- को स्वीकार करनेका आग्रह कर सकना-भर मेरे हाथकी बात है । गुरुदेवकी उपाधि 'सर' का उपयोग अनजानेमें नहीं किया गया था । मैं जानता था कि गुरुदेवने उपाधिका परित्याग नहीं किया, बल्कि केवल यह कहा था कि उन्हें उससे मुक्त कर दिया जाये । उन्हें मुक्त नहीं किया गया था। इस सम्बन्धमें एन्ड्रयूजकी और मेरी बातचीत हुई भी; और हम दोनों इस परिणामपर पहुँचे थे कि उपाधिको वापस नहीं लिया गया है, इसलिए गुरुदेवके हम मित्रोंको इसे महत्व नहीं देना चाहिए; साथ ही हमने यह भी अनुभव किया था कि शिष्टाचारके ध्यानसे कभी-कभी उपाधिका उपयोग भी किया जाये। मैं जानता हूँ कि इन बहिष्कारोंको लेकर काफी जहर उगला गया है। इसलिए यह दिखानेके लिए कि उपाधिका उपयोग कोई अपराध नहीं है, मैंने सभी उपाधिधारियोंके नामके साथ उनकी उपाधियोंका उल्लेख जानबूझकर किया था। इस प्रकार मैंने गुरुदेवकी उपाधिका उल्लेख उनके प्रति सम्मानके कारण ही किया था । यो उपाधियोंका उल्लेख में इतने सहजभावसे करता चला गया कि इसका भान मुझे तब हुआ जब रामचन्द्रका पत्र मिलनेपर, महादेवने मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित किया ।

अब रही ईर्ष्याकी बात । रा० बाबू तथा अन्य मित्रोंको जानना चाहिए कि एक नहीं बल्कि बहुतसे बंगाली तथा कुछ गुजराती मित्रों और अन्य लोगोंने भी इस बातका उल्लेख इसी खयालसे किया है। मैं इतना और भी बता दूं कि मैंने उनके इस पूर्वग्रहको दूर करनेकी कोशिश की थी । जब मुझे मालूम हुआ कि कुछ

१. देखिए खण्ड २८, पृष्ठ ४४१-४७ ।