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हम असहयोगकी स्थितिसे फिसलकर बड़ी तेजीके साथ सहयोगकी ओर गिरते जा रहे हैं। वह समय जल्दी ही आयेगा जब हम अपना सिर ही काट फेकेंगे और घड़ ही धड़ रह जायेगां। यहाँ उन शर्तोंमें से कुछ शर्तें दी जा रही है जो किसी समयकी एक सुव्यवस्थित राष्ट्रीय पाठशालापर लगाई गई हैं। यदि यह पाठशाला सरकारी स्वीकृति प्राप्त करना चाहती है तो वर्तमान मुख्याध्यापकको अपने पदसे त्यागपत्र देनेके साथ ही पाठशालाकी समितिकी सदस्यतासे हट जाना चाहिए। पाठशालाके प्रबन्धमें भी वह किसी प्रकारका भाग नहीं ले सकता । वह पाठशालाके अहातेमें भी नहीं रह सकेगा। लड़कों और अध्यापकोंको राज- नीतिक सभाओंमें या सरकार विरोधी प्रदर्शनों में भाग नहीं लेना होगा। पाठ- शालाके प्रबन्ध-सम्बन्धी नियमोंको इस प्रकार परिवर्तित कर देना पड़ेगा कि भविष्यम असहयोग किया ही न जा सके। दूसरी एक पाठशालाके लिए जो कि सरकारी स्वीकृतिकी राह देख रही है, तुरन्त आदेश जारी किये गये हैं कि उसको तबतक स्वीकृति नहीं मिल सकती जबतक कि पाठशालाके पुस्तकालयसे प्रसिद्ध भारतीय लेखकोंकी कुछ पुस्तकें न हटा ली जायें। इसी प्रकारकी अन्य कुछ अपमानजनक शर्तोंको पूरा करना भी आवश्यक है।

यह पत्र पंजाबमें मार्शल लॉके दिनोंमें निकाले गये छात्रोंपर पुनः प्रविष्ट होनेके लिए लगाई गई शर्तोंमें से एककी याद दिलाता है। ऐसा लगता है कि पाठ- शालाओंके अध्यापकों तथा छात्रोंने पंजाबके अनुभवसे कुछ भी नहीं सीखा है। मैं असहयोग के विरुद्ध हुई प्रतिक्रिया समझ सकता हूँ, क्योंकि यह एक ऐसा नया विचार था जिसकी सफलताको सिद्ध नहीं किया जा सका, किन्तु गुलामों-जैसे सहयोगकी बात, जैसा कि इन शर्तोंसे स्पष्ट है, समझमें ही नहीं आ सकती। हमें तो यही लगता है कि राष्ट्रीय शालाएँ चाहे अव्यवस्थित ही क्यों न हों, चाहे कच्चे टूटे-फूटे मकानमें ही क्यों न चलाई जा रही हों, वे हर हालतमें सुव्यवस्थित और शानदार इमारतोंमें चलाई जा रही ऐसी सरकारी शालाओंसे श्रेष्ठ हैं जहाँ अध्यापक और छात्र किसीका आत्मसम्मान बाकी नहीं है ।

"अपने सद्गुणोंको छिपाइए "

एक पत्र-लेखक लिखते हैं :

मुझे लगता है कि आपके उपवास और प्रायश्चित्त तथा साथ ही आपकी प्रार्थनाम कुछ कमी है, इसीलिए उनका उपयुक्त प्रभाव नहीं पड़ता। त्यागको प्रभावशाली बनाने के लिए उसका विज्ञापन नहीं करना चाहिए, बल्कि उसे सर्वथा मौन रहकर गुप्त रूपसे करना चाहिए । शास्त्र कहते हैं कि सद्गुणोंको छिपाना चाहिए और पापोंको प्रकट करना चाहिए।

पत्र लेखकके इस कथनमें बहुत कुछ सचाई है। मेरे कुछ उपवासों, प्रायश्चित्तों और प्रार्थनाओंका उद्देश्य जनताको प्रभावित करना था, इसलिए उनकी घोषणा करनी पड़ी। किन्तु मेरे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई है। जब मैं जनतासे कुछ छिपाना