पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/३५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३३१
दक्षिण आफ्रिकाकी समस्या

बात उस संघर्षकी छः वर्षीय अवधिमें एक नहीं, अनेक बार प्रकट कर दी गई थी । संघर्षके दौरान ऐसा समय भी आया था कि जब स्व० जनरल बोथा और जनरल स्मट्स केवल इस शर्तपर महत्वकी हमारी तमाम बातोंको स्वीकार करने के लिए तैयार हो गये थे कि भारतीय समाज जातिभेदके उस विरोधको छोड़ दे; इसे वे (जनरल बोथा और जनरल स्मट्स) केवल भावुकताके कारण किया गया विरोध ही मानते थे। उसके बाद अर्थात् १९०८ से संघर्ष मुख्यतः इसी एक विरोधको केन्द्र मान- कर चलाया जाता रहा। जनरल बोथाने उस समय यह जाहिर भी किया कि इस मुद्दे- पर दक्षिण आफ्रिकाकी कोई भी सरकार थोड़ी भी नहीं झुकेगी। उन्होंने यह भी कहा था कि भारतीयोंका संघर्षकी ओर आगे बढ़ना "सर्वथा अनावश्यक' कदम होगा। इसलिए यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि समझौतेका सार ही यह था कि भारतीयों- से सम्बन्ध रखनेवाले किसी भी कानूनमें जातिभेदके तत्त्वको किसी भी प्रकारसे स्थान नहीं दि जा सकता। लेकिन आज तो डा० मलानके विधेयकके प्रत्येक वाक्यसे जातिभेदकी भावना झलक रही है।

इसलिए मेरी नम्र सम्मतिके अनुसार इस विषयमें यह विधेयक उस समझौतेको स्पष्ट रूपसे भंग करता है। इसके अलावा उक्त संघर्ष भारतीयोंके सम्बन्धमें कानून बनाकर नई रुकावटें खड़ी करने के विरुद्ध भी तो किया गया था। वह समझौता भारतीयोंके अधिक अच्छे भविष्यके मंगलाचरणके रूपमें था। तत्सम्बन्धी पत्र-व्यवहार- में तो यही बात कही गई थी। समझौतेका अर्थ क्या हो सकता है? आज यदि तत्कालीन सरकारकी मर्जीके अनुसार भारतीयोंपर नये प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं तो भारतीयों की स्थितिपर फिर आगे कभी आक्रमण न होगा, इसका क्या भरोसा है? सरकारने यह समझौता खुशीसे नहीं किया था । आठ सालके लम्बे और डटकर किये गये उस संघर्षके बाद जिसमें हजारों भारतीयोंने बड़ी-बड़ी तकलीफें उठाई थीं, और जिसमें बहुतेरोंने अपनी जानें भी गँवाई थीं, सरकारको इसे करनेपर मजबूर होना पड़ा था। उस समझौतेका अर्थ ही क्या हो सकता है, जो आज तो संघर्षके मुद्दोंके बारेमें सदाके लिए कोई निर्णय करता है लेकिन दूसरे ही दिन फिर वे ही सवाल फिरसे उठाये जाने लगते हैं? क्या वर्तमान कानूनोंपर वर्तमान हकोंके प्रति पूरा ध्यान देकर अमल इसीलिए किया जाता था कि नये कानून बनाकर उनपर फिरसे आक्रमण किया जाना है ? डा० मलानकी दलील ऐसी ही मालूम होती है; और यही उनके अनुसार १९१४ के समझौतेका अर्थ भी प्रतीत होता है । मन्त्री महोदयकी इस दुःखद दलीलमें सन्तोषके योग्य कुछ बात अवश्य है; वे समझौतेसे मुकरते नहीं हैं। लेकिन साथ ही वे यह भी तो कहते हैं कि उनके विधेयकसे वह भंग नहीं होता। इसलिए यह सोचना स्वाभाविक है कि यदि यह साबित हो सके कि विधेयकसे समझौता भंग होता है तो वह विधेयक वापस लिया जायेगा ।

तो सवाल यह है कि जब किसी समझौतेके अर्थके सम्बन्धमें विभिन्न पक्षोंमें मतभेद हो, तो क्या किया जाना चाहिए ? उसका साधारण उपाय तो सभी जानते