पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/३५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३३२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हैं। लेकिन मैं दक्षिण आफ्रिकामें घटित दो घटनाओंका उल्लेख करना चाहता हूँ । १८९३ के लगभग ट्रान्सवालमें प्रवासी भारतवासियोंके रुतबेके सम्बन्धमें दक्षिण आफ्रिका (ट्रान्सवाल) के गणतन्त्र राज्य तथा ब्रिटिश सरकारमें कुछ मतभेद था। इसमें एक प्रश्न १८८५के कानून ३ के अर्थके सम्बन्धमें था। दोनों पक्षोंकी रजामन्दीसे इसका निर्णय करनेका कार्य सरपंचको सौंप दिया गया था । तत्कालीन ऑरेंज फ्री स्टेटके मुख्य न्यायाधीश मेलें द वियेर एकमात्र सरपंच बनाये गये । सब-कुछ उन्हींके हाथमें था। मतभेदका दूसरा अवसर तब आया जब वेरीनिगिंगकी सन्धिके अर्थके सम्बन्धमें ट्रान्सवाल सरकारके प्रतिनिधि जनरल बोथा और ब्रिटिश सरकारमें मतभेद उत्पन्न हुआ था। मेरा खयाल है कि उस समय स्व० सर हेनरी कैम्बेल बेनरमैनने यह निर्णय दिया था कि कमजोर पक्ष अर्थात् ट्रान्सवाल सरकार उसकां जो अर्थ करे वही स्वीकार किया जाना चाहिए और इसपर मामला पंचके पास भेजे बिना या कुछ और करनेकी कोशिश किये बिना ही ब्रिटिश सरकारने लार्ड किचनरके मतके खिलाफ जनरल बोथाके अर्थको स्वीकार कर लिया था। क्या डा० मलान इसमें से किसी भी एक उदाहरणका अनुसरण करेंगे? या फिर वे भी शेर और मेमनेकी कहानीके शेरकी तरह यही कहते रहेंगे कि हर हालतमें उन्हींकी बात सच्ची है ? कुछ भी हो, यदि डा० मलान १९१४ के समझौतेको स्वीकार करते हैं तो पंच निर्णय कराने के बारेमें दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय शिष्टमण्डलका पक्ष काफी मजबूत है।

भारतीय शिष्टमण्डलने वाइसरायके समक्ष पेश करनेके लिए तैयार किये गये अपने तर्कसंगत बयानोंके द्वारा अपना पक्ष बड़ा मजबूत बना लिया है। स्वाभाविक है कि उन्होंने भारतीयोंकी निर्योग्यताओंकी पेश की गई सूचीके खिलाफ १९१४ के समझौते को देखते हुए कोई तर्क उपस्थित नहीं किये हैं। डा० मलान केवल इतना ही कहते हैं कि उनके प्रस्तावित विधेयकसे समझौता भंग नहीं होता; लेकिन यह एक ऐसी बात है कि इसे आसानी से छोड़ा भी नहीं जा सकता। इसलिए शिष्टमण्डलका काम निःसन्देह बड़ा ही मुश्किल हो जाता है। इस मामले में एक जिद्दी सरकार घोर जातिभेदके तत्वके आधारपर कानून बनवानेपर तुली हुई है। तमाम यूरोपीय लोग इस प्रश्नपर एकमत प्रतीत हो रहे हैं। श्री एन्ड्रयूज कहते हैं कि जनरल स्मट्स अपनी शक्ति-भर सरकारके पक्षका समर्थन कर रहे हैं। लेकिन मुझे इससे आश्चर्य नहीं होता; क्योंकि वे हमेशा ही "जैसी बहे बयार पीठ पुनि तैसी कीजे "की नीति बरतते रहे हैं। किये हुए वादों और घोषणाओंके प्रति जनरल स्मट्सने जितनी उपेक्षा दिखाई है, उतनी किसी अन्य राजनीतिज्ञने नहीं; और अपने इसी स्वभावके फलस्वरूप लोग उन्हें “स्लिम जैनी" कहने लगे हैं। लेकिन सत्य तो स्पष्ट ही भारतीयोंके पक्षमें है। यदि उन्होंने सिद्धान्तके मामलोंमें पीछे न हटनेका दृढ़ निश्चय कर लिया है तो उनकी जीत अवश्यम्भावी है।

डा० मलान चाहते थे कि जेम्स गॉडफे इस कानूनके सिद्धान्तको स्वीकार कर लें और उसके भिन्न-भिन्न अंगोंके सम्बन्धित तफसीलपर विचार करें ताकि वह चीज, जिसे वे रचनात्मक प्रस्तावके नामसे विभूषित करते हैं, तैयार हो जाये । खुशीकी बात है