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८४. सन्देश : "कामना" को[१]

कानपुर
[२६ दिसम्बर, १९२५]

आप चाहे उदार दलवादी, नरम दलवादी या राष्ट्रवादी हों; हिन्दू हों या मुसलमान; पूरबके रहनेवाले हों या पश्चिमके; पर यदि आप भारतकी उस जनता के साथ अपना भाईचारा मानते हों जिसके साथ आपका भाग्य जुड़ा हुआ है, जिनके बीच आप पैदा हुए हैं, तो आप केवल हाथकती और हाथबुनी खादीके वस्त्रोंका उपयोग करें, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं ।

[अंग्रेजीसे]
अमृतबाजार पत्रिका, २९-१२-१९२५
 

८५. पत्र : एक बहनको

[२६ दिसम्बर, १९२५][२]


चि०...

तुम दोनोंके पत्रोंसे मुझे सन्तोष नहीं हुआ। पूत कपूत हो जाये पर माता कुमाता नहीं हो सकती, इस कहावतको माननेसे काम नहीं चलेगा। यदि पुत्र ऐसा कहकर अपने दोषको कम करके आँकना चाहे तो वह उन्नति नहीं कर सकता। सन्तानका तो यही धर्म है कि वह माता-पितासे बढ़-चढ़ कर काम करे। [मैं] अपनी सन्तानसे यह कह सकता हूँ कि मुझमें अमुक-अमुक दोष हैं; उनके लिए तुम लोग मुझे क्षमा करो पर तुम स्वयं कभी इन दोषोंके दोषी मत बनना; नहीं तो मैं कहींका न रहूँगा। जब कोई दम्पति सन्तानकी इच्छा करता है तब उनके मनमें यही भावना रहती है कि सन्तान उनकी प्रतिष्ठा बढ़ायेगी, खूब उन्नति करेगी और उनकी कीर्तिको चिरजीवी बनायेगी। इसीलिए रामचन्द्रने कहा : रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाय बरु बचन न जाई। उन्होंने यह नहीं कहा कि यह रामचन्द्रकी रीति है। रामचन्द्रने रघुवंशका उद्धार किया था। सो तुम भी... के वंशका और आश्रमका उद्धार करो। आश्रममें अनेक दोष हैं; पर वे तो हम गुरुजनोंके दोष हैं। उनका अनुकरण तुम्हें तो नहीं करना है न? तुम्हारा धर्म यही है कि आश्रम में जो-कुछ अच्छा है उसे अपनाओ। इसीलिए पत्र लिखनेके अपने वादे से मुक्त होनेकी

  1. कानपुरकी एक उर्दू पत्रिका।
  2. साधन-सूत्र के अनुसार।