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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

प्रत्यंग बिना इस प्रकारका प्रयत्न किये स्वभावतः सुगठित और सुन्दर होते हैं। भूमध्य रेखाके समीप रहनेवाले लोगोंके वर्णका काला होना स्वाभाविक ही है। प्रकृतिकी गढ़ी हुई आकृतियोंमें सुन्दरता अवश्य होती है, यदि हम इसमें विश्वास करें तो अपनी सौन्दर्य सम्बन्धी संकीर्ण और एकदेशीय कल्पनासे मुक्त हो जायें, इतना ही नहीं, बल्कि अपने वर्णके एक हदतक काले होनेसे हम जिस अशोभनीय लज्जा और हीनताका अनुभव करते हैं उससे छुटकारा पा जायें ।

ये हब्शी घास और मिट्टीकी गोलाकार झोंपड़ियाँ बनाकर रहते हैं। झोंपड़ियोंके एक ही गोल दीवार और उसके ऊपर घासका एक छप्पर होता है। झोंपड़ीके भीतर एक खम्भा होता है; छप्पर इसीपर टिका होता है। इन झोंपड़ियोंके द्वार इतने नीचे होते हैं कि उनमें झुके बिना नहीं जा सकते । झोंपड़ियोंमें हवा और प्रकाश भी इन्हीं द्वारोंसे जाते हैं। इन द्वारोंमें किवाड़ कदाचित् ही लगाये जाते हैं। वे लोग हमारी तरह दीवारों और फर्शको मिट्टी और गोबरसे लीपते हैं। कहते हैं कि ये लोग कोई चीज चौकोर नहीं बना पाते। इनकी आँखें केवल गोल चीजोंको ही देखने और बनानेकी अभ्यस्त होती हैं। हम देखते हैं कि प्रकृति ज्यामिति-जैसी सीधी रेखायें और वैसी सीधी रेखाओंसे घिरी आकृतियाँ नहीं बनाती । प्रकृतिके इन निर्दोष बालकोंका ज्ञान प्रकृतिमें जो कुछ देखा है उसीपर निर्भर होता है।

उनके इन मिट्टीके महलोंमें साज-सामान भी उनके अनुरूप ही होता है। जब वहाँ यूरोपीय सभ्यता नहीं पहुँची थी तब ये लोग चमड़ा ही पहनते-ओढ़ते और बिछाते थे। इनके इन महलोंमें कुर्सियों, मेजों और सन्दूकोंके रखने लायक जगह हो नहीं होती और कहा जा सकता है कि उनमें ये चीजें आज भी नहीं होतीं। अब उनके घरोंमें कम्बलोंका व्यवहार आरम्भ हो गया है। अंग्रेजी राज्यसे पहले हब्शी स्त्रियाँ और पुरुष लगभग नंगे ही घूमते-फिरते थे। इस समय भी गाँवोंमें तमाम हब्शी ऐसे ही रहते हैं। ये लोग अपने गुह्य अंगोंको चमड़ेसे ढक लेते हैं। कोई-कोई इतना भी नहीं करते। किन्तु इससे पाठक यह अर्थ न निकालें कि ये लोग स्वेच्छाचारी होते हैं। लोगोंके किसी बड़े समुदायका किसी पुरानी प्रथाके अनुसार चलना दूसरे किसी समुदायको अयोग्य भले ही लगे, फिर भी उसका बिलकुल निर्दोष होना सम्भव है। इन हशियोंको एक दूसरेकी ओर ताकने झाँकनेका अवकाश ही नहीं होता। भागवत- कारने बताया है कि शुकदेवजी जब स्नान करती हुई वस्त्रहीन स्त्रियोंके बीचसे गुजरे तब उससे न तो उनके मनमें कोई विकार उत्पन्न हुआ और न उन भोली स्त्रियोंको ही कोई क्षोभ अथवा लज्जाका अनुभव हुआ। मुझे इसमें विचित्र कुछ भी नहीं लगता। यदि आज हिन्दुस्तानमें ऐसी स्थितियों में हमें इतनी स्वच्छताका अनुभव नहीं होता तो यह बात हमारी पवित्रताकी द्योतक न होकर हमारे दुर्भाग्यका ही चिह्न है। हम इन लोगोंको जंगली मानते हैं, यह तो हमारा दम्भ है। हम इन्हें जितना जंगली मानते हैं, वे उतने जंगली है नहीं।

हब्शियोंको शहरोंमें जाने के कुछ नियम मानने पड़ते हैं। स्त्रियोंके लिए छातीसे लेकर घुटनों तकका भाग ढँककर जाना लाजिमी है। इसलिए उन्हें अनिच्छा होनेपर