पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/३८३

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पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको ३५७ पूर्ण रूपसे स्वराज्यवादियोंपर छोड़ दूं; उसमें कोई रुकावट न डालूं, बल्कि जहाँ सम्भव हो मैं उन्हें मदद दूं। [ अंग्रेजीसे ] हिन्दुस्तान टाइम्स, ३१-१२-१९२५ ९४. मथुरादास त्रिकमजीको लिखे पत्रका अंश दिसम्बर, १९२५ जिससे तुम्हें शान्ति मिले, मैं वही करना चाहता हूँ । इसलिए जैसे पुत्र पितासे, मित्र मित्रसे और रोगी डाक्टरसे निस्संकोच अपनी बात कहता है उसी तरह तुम मुझसे निस्संकोच होकर अपनी बात कहो। मुझसे जो माँगना हो वह माँगो। मैं तो पिता हूँ, मित्र हूँ; और डाक्टर तो हूँ ही। [ गुजरातीसे ] बापुनी प्रसादी ९५. पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको [१९२५] ' भाई घनश्यामदासजी, आपका पत्र मीला है। आपको दुःख हुआ है उसका कारण केवल अखबार- वाले हैं। मेरी भाषा वे समझते नहीं हैं तदपि कुछ न कुछ लीख डालते हैं। जो वस्तु मैंने स्तुतिभावसे कहा उसीको निंदाके भावसे लीख दीया। मैं सभ्योंकी गोरक्षाके विषयमें स्तुति कर रहा था और बता रहा था कि जबतक मारवाडीयोंकी पूरी सहाय मुझे नहि मीलेगी मैं कुछ नहि कर सकुंगा । मुझे सहाय केवल उनके धनकी नहि परंतु उनको बुद्धिकी भी चाहिये । इस सिलसिलेमें मैंने स्तुति रूपमें कहा की मैंने एक मारवाड़ी भाईको खजानची बननेका निमंत्रण दीया था नहि धनके लीये परंतु उनके पाससे पूरी सेवा लेनेके लीये। कैसा भी हो मैंने आपके नकारका बुरा- कभी नहि माना है न उस सभा मैंने बुरा मानकर कहा था। मैं ऐसी उमेद किसी मित्रसे नहि रखता हुं कि वह मेरी प्रत्येक प्रार्थनाको स्वीकार करे । आपके अस्वीकार- को मैं पूरा समझ सका था । इसी तरह मैंने आपका देशबन्धु स्मारकके लीये निश्चय भी समझ लीया है उससे मुझको कुछ दुःख नहिं हुआ है। १. देशबन्धु स्मारकके उल्लेखसे ।