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वार्षिक प्रदर्शन

बहुत-सी नजीरें हैं। यदि किसी निषेधाज्ञाका प्रयोग किसी भी परिस्थितिमें नहीं ही किया जाना होता तो फिर इस बातको सम्राट्की हिदायतोंमें आ जाना था और यदि उसका प्रयोग किन्हीं खास परिस्थितियोंमें किया जा सकता है तो निःसन्देह वह परिस्थिति इस अनर्थकारी विधेयकके संघीय विधानमण्डल द्वारा पास हो जानेपर उत्पन्न होगी ।

कांग्रेस मताधिकारसे सम्बन्धित प्रस्ताव और विषय-समितिकी बहससे खादीकी बढ़ती हुई लोकप्रियता सिद्ध हो जाती है। इस बातकी सम्भावना स्पष्ट है कि स्वराज्य- वादी खद्दर नहीं छोड़ेंगे और मतदाताओंपर उनका अधिकार अभी भी बना रहेगा। निस्सन्देह विषय समितिका रुझान खद्दर सम्बन्धी शर्तको और सख्त करनेकी ओर था। जैसा कि दावा किया जाता है, यदि खद्दर सर्वाधिक महत्वपूर्ण आर्थिक और राष्ट्रीय महत्वकी चीज है, तो खद्दर मताधिकारकी योग्यताका एक अंग होना उचित ही है। इस बातकी आशा की जाती है कि जब कांग्रेसने इस प्रस्तावको बहुत बड़े बहुमतसे पास किया है तो उसके सदस्य स्वयं अपने द्वारा लगाई गई शर्तका निष्ठा एवं ईमानदारीके साथ पालन करेंगे । जहाँ सदस्य सामान्य प्रामाणिकताका निर्वाह करनेको तैयार हों वहाँ किसी तरहकी जाँच-पड़तालकी जरूरत नहीं है।

कौंसिल प्रवेशका प्रस्ताव एक लम्बी चौड़ी बात है। यह स्पष्ट रूपसे सरकारके लिए एक प्रकारका नोटिस है और साथ ही मतदाताओंके लिए इस बातका स्पष्ट संकेत है कि उन्हें स्वराज्यदलसे क्या आशा करनी चाहिए। सविनय अवज्ञापर दिया गया जोर मेरे विचारसे बिलकुल उपयुक्त है। कोई भी राष्ट्र तबतक आगे नहीं बढ़ सकता जबतक कि उसे अपने संकल्पको क्रियान्वित करनेकी छूट न हो । सविनय अवज्ञा- में बार-बार आस्था प्रकट करनेका अर्थ यह है कि राष्ट्रके प्रतिनिधि सशस्त्र विद्रोहमें विश्वास नहीं करते। सविनय अवज्ञा दूरकी चीज भी हो सकती है; और लोगोंकी कल्पनासे कहीं अधिक निकटकी भी । समयका इसमें कोई सवाल नहीं है। अहिंसा- त्मक प्रतिरोधकी भावना पैदा करना ही सब-कुछ है। इसलिए जबतक कांग्रेसका सविनय अवज्ञामें विश्वास है, और उसका संकल्प क्रियान्वित नहीं होता, तबतक उसे सविनय अवज्ञाको जनताके सामने रखकर लोगोंको बताना चाहिए कि सशस्त्र विद्रोह- का पूरा और कारगर विकल्प यही है। लोगोंको यह बताना भी कांग्रेसका काम है कि भारतकी स्थितिको देखते हुए सशस्त्र विद्रोहकी तनिक-सी भी गुंजाइश नहीं है । जब लोगोंको विशेषकर स्वयंसेवकोंको, इस बातके लिए राजी किया जा सके कि बड़ीसे- बड़ी उत्तेजनाके क्षणोंमें भी आत्मसंयमसे काम लिया जाना चाहिए, सविनय अवज्ञा तभी पूरी तरह सम्भव है।

जहाँतक कौंसिलोंमें रहने या न रहनेका प्रश्न है, इसका निर्णय कि उनकी अपनी स्थिति और कौंसिलोंकी परिस्थिति क्या है, स्वयं स्वराज्यवादी ही कर सकते हैं । वे उस कार्यक्रमके विशेषज्ञ हैं। और यदि वे पटना-प्रस्तावको, जिसकी अब

१. देखिए “भाषण : कानपुर कांग्रेस अधिवेशनमें ", २४-१२-१९२५ ।