पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ऐसे विशाल देशमें, जहाँ ऐसी निर्दोष जाति बसती थी, लगभग ४०० साल पहले वलन्दा लोग' बसने लगे। वे गुलाम तो रखते ही थे । कुछ वलन्दा लोग अपने पहलेके उपनिवेश जावासे कुछ मलायी गुलामोंको साथ लेकर उस प्रदेशमें आये जिसे अब केप कालोनी कहते हैं। ये मलायी लोग मुसलमान हैं। वे वलन्दोंकी सन्तान हैं और उनमें उनके कुछ गुण भी पाये जाते हैं। वे यहाँ-वहां सारे दक्षिण आफ्रिकामें बिखरे हुए दिखाई देते हैं; किन्तु उनका मुख्य स्थान केपटाउन ही है। आज उनमें से कुछ लोग गोरोंकी नौकरी करते हैं और शेष अपने-अपने स्वतन्त्र धन्धे करते हैं। मलायी स्त्रियां बहुत ही उद्योगशील और चतुर होती हैं। उनका रहन-सहन प्रायः साफ-सुथरा है। ये स्त्रियाँ धुलाई और सिलाईका काम बहुत अच्छा कर सकती हैं। मर्द लोग छोटे-मोटे व्यापार करते हैं। उनमें से बहुतसे ताँगे-गाड़ियाँ चलाकर अपनी आजीविका चलाते हैं। इनमें से कुछ लोग उच्च कोटिकी अंग्रेजी शिक्षा भी प्राप्त कर चुके हैं। उनमें से एक सज्जन प्रसिद्ध डाक्टर हैं। उनका नाम अब्दुर्रहमान हैं। वे केप- टाउनमें रहते हैं। वे केपटाउनकी पुरानी विधानसभा सदस्य भी थे, किन्तु इन लोगोंको नये संविधानके अनुसार मुख्य विधान सभामें अपने सदस्य भेजनेका अधिकार नहीं रहा है।

वलन्दा लोगोंके सन्दर्भमें मलायी लोगोंकी थोड़ी-बहुत चर्चा अपने-आप आ गई। किन्तु अब हम जरा इस बातपर विचार करें कि वलन्दा लोगोंने किस प्रकार उन्नति की। यह तो सभी जानते हैं कि वलन्दाका अर्थ है डच । ये लोग जितने वीर योद्धा थे उतने ही कुशल किसान भी थे; आज भी हैं। उन्होंने देखा कि उनके आसपासका देश खेती करनेके लिए बहुत उपयुक्त है। उन्होंने यह भी देखा कि वहाँके वतनी लोग सालमें थोड़े दिन काम करके सुगमतासे अपना निर्वाह कर सकते हैं। तब उन्होंने सोचा कि इन लोगोंसे मजदूरी क्यों न कराई जाये । वलन्दा लोगोंके पास बुद्धि थी, बन्दूक थी और वे जानते थे कि अन्य प्राणियोंकी भाँति मनुष्योंको वशमें कैसे किया जा सकता है। वे इसमें धर्मकी कोई बाधा नहीं मानते थे। इसलिए अपने कार्यकी अच्छाईके सम्बन्धमें तनिक भी शंका किये बिना उन्होंने दक्षिण आफ्रिकाके वर्तनियोंसे खेतीका कार्य और अन्य कार्य लेना आरम्भ किया।

जैसे वलन्दा लोग संसार-भरमें अच्छे से अच्छे भू-भाग अधिकृत करनेकी दृष्टिसे खोजते फिर रहे थे वैसे अंग्रेज भी इस दिशामें प्रयत्नशील थे। अतः धीरे-धीरे यहाँ अंग्रेज भी आ गये। अंग्रेज और डच मौसेरे भाई तो हैं ही दोनोंका स्वभाव एक और लोभ-वृत्ति एक । यदि एक ही कुम्हारके बनाये बर्तन एक जगह इकट्ठे किये जाते हैं तो उनमें से कुछ तो टकराकर टूटते-फूटते ही हैं। उसी तरह ये दोनों जातियाँ अपने-अपने पैर फैलाती हुई और धीरे-धीरे हब्शियोंको अपने वशमें करती हुई कभी- कभी परस्पर टकरा जाती थीं और उनमें झगड़े और लड़ाइयाँ भी हो जाती थीं; ऐसे ही एक युद्धमें मजूबाकी टेकरीपर अंग्रेजोंको वलन्दोंसे हार खानी पड़ी थी। किन्तु मजू- बाकी इस हारकी कसक उनके मनमें बस गई और उसने भीतर-ही- भीतर नासूरका

१. डच जातिके लोग।