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११७. पत्र : काका कालेलकरको

९ जनवरी, १९२६


भाईश्री काका,

आपका पत्र मिला। मुझे लगता है कि हमें अपनी शिक्षा पद्धतिमें अंग्रेजीको कुछ-न-कुछ स्थान प्रदान करना चाहिए। यदि पश्चिमसे और उसके साहित्यसे सम्बन्ध इष्ट हो तो इस समय अंग्रेजी भाषाके द्वारा ही उसका सर्वाधिक लाभ उठाया जा सकता है। मैंने उसे इसी कारण हाईस्कूलके पाठ्यक्रममें स्थान दिया है। 'पिलग्रिम्स प्रोग्रेस के बारेमें जो मत आपका है वही मेरा भी है; लेकिन मैं फिलहाल आसानीसे इसीको पढ़ा सकता था। इसलिए मैंने इसे आरम्भ कर दिया ।

आश्रमवासियोंने यह थोड़ी-बहुत मुझसे पढ़ी भी थी। मैं अन्य कुछ पढ़ाना आरम्भ करता तो वह कृत्रिम होता। मैंने 'गीता' तथा 'रामायण' पढ़ानेका भी विचार किया था। लेकिन मैं इन्हें पढ़ानेके लिए उतना योग्य नहीं हूँ। मैं 'रामायण' का शब्दार्थ भी मुश्किलसे कर पाता हूँ। 'गीता' का शब्दार्थ भी जितना निश्चयपूर्वक करना चाहता हूँ उतना निश्चयपूर्वक नहीं कर पाता। मेरा धर्म, मेरे पास जो ज्ञान-धन है उसे ही वितरित करना है। मुझे ध्यान यही रखना है कि उसका परिणाम अनिष्टकर न हो, मैं सिद्धान्ततः आपके निर्णयको स्वीकार करता हूँ। लेकिन ऐसा लगता है कि यह बात हमारी परिस्थितियोंपर लागू नहीं होती। मैंने कहा तो है कि मेरा अंग्रेजी भाषाका ज्ञान और उसके द्वारा मेरा कार्य करना कुछ अंशों हमारे सीधे-सादे जनसाधारणकी प्रगतिमें बाधा रूप है। लेकिन मालूम होता है, अनिवार्य होने के कारण इसे सहन करना ही होगा।

मैं आपके दूसरे पत्रकी बाट जोहूँगा। मैं अभी बालकोंके लिए लिखे गये आपके पत्रको नहीं पढ़ सका हूँ। आप पत्र लिखनेमें बिलकुल भी संकोच न करें। मुझे यह बहुत अच्छा लगा है।

विनोबा और अप्पा यहीं हैं।

गुजराती प्रति (एस० एन० १२१७८) की फोटो-नकलसे ।