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पत्र : वसुमती पण्डितको

ब्रह्मनिर्वाणमें कोई भेद नहीं करता। किन्तु शंकर अपने दृष्टिकोणकी हदतक सही थे, क्योंकि वे बौद्ध निर्माणको केवल शून्यता मानते थे। इसलिए सम्भव है कि आपकी व्यष्टिकी परिभाषा उस परिभाषासे बिलकुल भिन्न हो जो मैं करता हूँ। क्या समुद्रकी एक बूंदकी समुद्रसे अलग कोई अपनी व्यंष्टिगत सत्ता होती है ? फिर मुक्त आत्माकी अपनी एक व्यष्टिगत सत्ताका सवाल ? बीमारीका बोध ? किन्तु मुझे इसे लेकर अधिक गहराईमें नहीं उतरना चाहिए।

४. मैं सबसे तो यह नहीं कहता कि चरखा उन्हें आध्यात्मिक मुक्ति देगा। किन्तु वह मेरे लिए ऐसा ही है, क्योंकि मैंने सब तरहसे उसके साथ अपना ऐसा ही सम्बन्ध बना लिया है, जैसे रामनामका यूरोपीय लोगोंके लिए कोई अर्थ नहीं, पर तुलसीदास तथा उन जैसे लोगोंके लिए तो वह दिव्य संगीत है।

मैं जानता हूँ कि आपके अत्यन्त ही निष्ठाभावसे पूछे गये प्रश्नोंके मेरे उत्तर कितने अपर्याप्त हैं। आप उन्हें प्रकाशित करनेके लिए स्वतन्त्र है, किन्तु यदि आप मेरी राय मानें तो मैं आपको ऐसा करनेकी बिलकुल राय नहीं दूंगा। एक कारण यह भी है कि ये उत्तर बहुत संक्षिप्त हैं, इसलिए शायद समझे न जा सकें। हमारी पिछली बातचीतके सन्दर्भ में आप उन्हें समझ सकेंगे और जो-कुछ कमी रहेगी आप उसे भर लेंगे।

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १४०८०) की फोटो-नकलसे।

१३०. पत्र : वसुमती पण्डितको

मंगलवार [१२ जनवरी, १९२६][१]

चि० वसुमती,

तुम्हारा पत्र मिला। मैं इस पत्रको तो टिकट बचानेकी खातिर रामदासके साथ भेजूंगा। यदि उसे देना भूल गया तो डाकमें डाल दूंगा।

यहां तो जब आनेकी इच्छा हो तभी आ जाना, लेकिन वहाँ संस्कृत शुरू की है तो उसमें थोड़ी गति प्राप्त कर लेनी चाहिए। फिर भी बेचैनी रहती हो तो उसे भी छोड़-छाड़कर चली आना। इसमें शक नहीं कि शान्ता यहाँ ज्यादा सीख रही है।

अभी तुम्हारे अक्षर मुझे सुन्दर तो अवश्य ही नहीं लगे; किन्तु फिर भी इनमें सुधार तो बहुत कुछ हुआ है। कदाचित् इससे और अधिक नहीं सुधरेंगे, ऐसा मानकर मैंने कहना ही छोड़ दिया है। अब जो सुधार होगा वह अभ्याससे होगा।

हरी मिर्च भी हानिकर होती है, ऐसा जानना। उसके बिना काम चले तो चलाना चाहिए।

यहाँकी बाकी खबरें रामदास बतायेगा।

  1. १. मोतीके विवाहके उल्लेखसे। यह विवाह १८ जनवरी, १९२६ को हुआ था।