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तीन महत्त्वपूर्ण प्रश्न
द्वैतवादी भी नहीं, क्योंकि आप जीवात्माके स्वतन्त्र कर्तृत्वपर श्रद्धा रखते हैं। इसलिए आपको अनेकान्तवादी या स्याद्वादी कहना ठीक क्यों नहीं है ?
(३) आपने कई बार लिखा है कि ईश्वरके मायने देहरहित, वीतरागी, स्वतन्त्र और उपाधिरहित शुद्धात्मा है; अर्थात् ईश्वरने सृष्टि नहीं पैदा की और वह पाप-पुण्यका निर्णय करने भी नहीं बैठता। तो भी आप ईश्वरेच्छाको बात बार-बार करते ही रहते हैं। उपाधिरहित ईश्वरको इच्छा कैसे हो सकती है और उसकी इच्छाके अधीन आप कैसे हो सकते हैं? आपकी आत्मा जो- कुछ करना चाहती है, कर सकती है। यदि आत्मा ऐसा नहीं कर पाती तो उसका पूर्वसंचित कर्म ही इसका कारण है, न कि ईश्वर। आप सत्याग्रही होनेके कारण सिर्फ मुढ़ात्माओंको समझाने के लिए यह असत्य बात तो नहीं कहते होंगे। फिर यह ईश्वरेच्छाका दववाद क्यों ?

(१) मेरा वर्णभेदका मानना सृष्टिके नियमोंका समर्थन करना है। हम अपने माता-पिताकें कुछ गुणदोष जन्मसे ही विरासतमें प्राप्त करते हैं। मनुष्य योनिमें मनुष्य ही पैदा होते हैं, इसे जन्मानुसार वर्णका ही सूचक समझिए। हम जन्मतः प्राप्त गुण-दोषों में थोड़ा-बहुत परिवर्तन कर सकते हैं; इस दृष्टिसे कर्मको भी स्थान है। एक हो जन्ममें पूर्वजन्म में अर्जित संस्कारोंको सर्वथा मिटा देना शक्य नहीं है। इस अनुभवको देखते हुए तो जो जन्मसे ब्राह्मण है उसे ब्राह्मण मानने में ही सब प्रकारसे लाभ है। विपरीत कर्म करने से ब्राह्मण इसी जन्ममें शूद्र बन जाये और संसार उसे फिर भी ब्राह्मण ही मानता जाये तो इससे संसारकी कोई हानि नहीं। यह सच है कि आज वर्ण व्यवस्थाका अर्थ उलटा हो रहा है और इसीलिए यह भी सच है कि वह छिन्न-भिन्न हो गई है। फिर भी में जिस नियमकी सत्यता पद-पदपर सिद्ध होती देखता हूँ उससे कैसे इनकार कर सकता हूँ? मैं यह मानता हूँ कि यदि में उससे इनकार करूँ तो बहुत-सी मुश्किलोंसे बच सकता हूँ। लेकिन यह तो दुर्बुद्धि- का मार्ग है। मैंने तो यह स्पष्ट पुकार कर कहा है कि मैं वर्णोंको स्वीकार करने में ऊँच-नीचके भावको स्वीकार नहीं करता। जो सच्चा ब्राह्मण है वह सेवकका भी सेवक बनकर रहता है। ब्राह्मणमें भी क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रके गुण अवश्य ही रहते हैं। केवल उसमें ब्राह्मणके गुण, दूसरोंके गुणोंकी अपेक्षा अधिक होने चाहिए। लेकिन आज तो वर्ण भी कुम्हारके चाकपर चढ़े हैं और उसमें से गोल बनेगा या गागर, इसे तो विधाता ही जान सकता है या फिर ब्राह्मण।

(२) यह सच है कि मैं अपनेको अद्वैतवादी मानता हूँ, लेकिन द्वैतवादका सम- र्थन भी मैं कर सकता हूँ। संसारमं प्रतिक्षण परिवर्तन होता है इसीलिए सृष्टि असत्य - अस्तित्व रहित कही जाती है। लेकिन परिवर्तन होनेपर भी उसका एक रूप ऐसा है, जिसे उसका अपना स्वरूप कह सकते हैं। उस रूपमें उसकी सत्ता है, यह भी हम देख सकते हैं, इसलिए वह सत्य भी है। इस कारण उसे सत्यासत्य कहें तो भी मुझे कुछ आपत्ति नहीं। मुझे यदि इसी कारण अनेकान्तवादी या स्याद्वादी माना जाये तो इसमें भी कोई आपत्तिकी बात नहीं है। मैं स्याद्वादको जैसा जानता हूँ,

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