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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वैसा मानता हूँ। उसका जो रूप पण्डित मानते हैं शायद वैसा नहीं है। वे मुझसे वादविवाद करें तो मैं हार जाऊँगा। मैंने अपने अनुभवसे यह देखा है कि मैं अपनी दृष्टिसे हमेशा ठीक होता हूँ और प्रामाणिक टीकाकारोंकी दृष्टिसे मेरी बहुत-सी बातों त्रुटि होती है। किन्तु मैं यह जानता हूँ कि अपनी-अपनी दृष्टिसे हम दोनों ही ठीक हैं। और इस प्रतीतिके कारण मैं किसीको भी सहसा झूठा और कपटी नहीं मान सकता। सात अन्धोंने हाथीका सात प्रकारसे वर्णन किया था और वे सब अपनी- अपनी दृष्टिसे ठीक थे, आपसमें एक दूसरेकी दृष्टि से भूलमें थे और ज्ञानीकी दृष्टिमें सच्चे भी थे और गलत भी। मुझे यह अनेकान्तवाद बहुत प्रिय है। उससे ही मैं मुसलमानकी दष्टिसे मुसलमानकी और ईसाईकी दृष्टिसे ईसाईकी परीक्षा करना सीखा हूँ। मेरे विचारोंको जब कोई गलत समझता था तो पहले मुझे उसपर बड़ा क्रोध आता था; लेकिन अब मैं उसके विचारपूर उसकी दृष्टिसे भी विचार कर पाता हूँ; इसलिए मैं उससे भी प्रेम कर सकता हूँ, क्योंकि मैं संसारके प्रेमका भूखा हूँ। अनेकान्तवादके मूलमें अहिंसा और सत्य दोनों हैं।

(३) मैं ईश्वरको जिस रूपमें मानता हूँ उसी रूपमें उसका वर्णन करता हूँ। मैं लोगोंको भ्रममें डालकर अपना अधःपतन क्यों करूँ ? मुझे उनसे कौन-सा इनाम लेना है? मैं तो ईश्वरको कर्त्ता-अकर्त्ता मानता हूँ। इसका उद्भव भी मेरे स्याद्वाद्में से होता है। मैं जैनोंके स्थानपर बैठकर उसका कर्तृत्व सिद्ध करता हूँ और रामानुजके स्थानपर बैठकर उसका अकर्तृत्व। हम सब अचिन्त्यका चिन्तन करते हैं, अवर्णनीयका वर्णन करते हैं और अज्ञेयको जानना चाहते हैं । इसलिए हमारी भाषा तोतली है, अपूर्ण है और कभी-कभी तो वऋतक हो बैठती है। इसीलिए तो ब्रह्मके लिए वेदोंने अलौकिक शब्दोंकी रचना की और उसको 'नेति' कहकर पुकारा है। यद्यपि वह नहीं है, फिर भी वह है। अस्ति, सत्, सत्य, ०,१,११....यह कह सकते हैं। हम लोग हैं, हमें पैदा करनेवाले माता-पिता हैं और उनको भी पैदा करनेवाले है..इसलिए सबको पैदा करनेवाला भी एक है; यह माननेमें कोई पाप नहीं है बल्कि पुण्य है, यह मानना धर्म है। यदि वह नहीं है, तो हम भी नहीं हैं। इसीलिए हम सब उसे एक स्वरसे परमात्मा, ईश्वर, शिव, विष्णु, राम, अल्ला, खुदा, दादा होरमज, जिहोवा, गॉड इत्यादि अनेक और अनन्त नामोंसे पुकारते हैं। वह एक है, अनेक है; अणुसे भी छोटा है और हिमालयसे भी बड़ा है; समुद्रके एक बिन्दुमें भी समा सकता है। और सात समुद्र मिलकर भी उसे अपने भीतर समाविष्ट न कर सकें, इतना विशाल है वह। उसे जानने के लिए बुद्धिका उपयोग ही क्या हो सकता है ? वह तो बुद्धिसे परे है। ईश्वरके अस्तित्वको माननेके लिए श्रद्धाकी आवश्यकता है। मेरी बुद्धि अनेक तर्क-वितर्क कर सकती है और मैं किसी कट्टर नास्तिकसे विवाद करनेमें हार भी सकता हूँ;- फिर भी मेरी श्रद्धा मेरी बुद्धिसे इतनी अधिक आगे दौड़ती है कि समस्त संसारके विरोध करनेपर भी मैं यही कहूँगा कि ईश्वर है, और अवश्य है।

लेकिन जिसे ईश्वरके अस्तित्वसे इनकार करना हो, उसे इनकार करनेका अधिकार है, क्योंकि वह् तो दयालु है, रहीम है, रहमान है। वह कोई मिट्टीका बना हुआ