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गुरुकुल

राजा तो है नहीं कि उसे अपनी सत्ता स्वीकार कराने के लिए सिपाही रखने पड़ें। वह तो हम लोगोंको स्वतन्त्रता देता है, फिर भी केवल अपनी दयाके बलसे हम लोगोंका शासन करता है। लेकिन हम लोगों में से यदि कोई उसका शासन नहीं मानता तो भी वह कहता है: "खुशीसे मेरा शासन न मानो; मेरा सूर्य तो तुम्हें भी रोशनी देगा, मेरा मेघ तो तुम्हारे लिए भी पानी बरसायेगा । मुझे अपनी सत्ता चलानेके लिए तुमपर बलात्कार करनेकी कोई आवश्यकता नहीं।" ऐसे ईश्वरकी सत्ताको वह भले ही न माने जो नादान है; लेकिन मैं उसे माननेवाले करोड़ों बुद्धिमानों में से एक हूँ, इसलिए उसको सहस्र बार प्रणाम करनेपर भी नहीं थकता।

[गुजराती से]

नवजीवन , १७-१-१९२६

१४३. गुरुकुल

'गुरुकुल' एक पारिभाषिक शब्द हो गया है और उसका केवल विशेष प्रकारके आर्यसमाजी विद्यालयोंके लिए ही प्रयोग किया जाता है। इन गुरुकुलोंके सम्बन्धमें एक भाई लिखते हैं :[१]

मैं यह जानता हूँ कि मुझे किसीके भी प्रति घृणा नहीं है, फिर आर्यसमाजियोंके प्रति कैसे हो सकती है? मैं हमेशा आर्यसमाजियोंके सम्पर्कमें आया हूँ और उनसे मेरा सम्बन्ध आज भी कायम है। आलोचनात्मक शब्द लिखनेके बाद हमारा सम्बन्ध या प्रेम जरा भी कम नहीं हुआ है। इसलिए यदि मेरे लेखसे किसीके मनमें घृणा उत्पन्न हुई हो तो मेरे लिए यह आश्चर्य और दुःखकी बात है। आर्यसमाजियोंकी कुछ कृतियोंके सम्बन्धमें कोई मतभेद हो तो उससे उनके दूसरे गुण और उनकी देशसेवा भुलाई नहीं जा सकती। उन्होंने जनता में नया जीवन डाला है। उन्होंने हिन्दू धर्ममें प्रविष्ट कितने ही दोषोंका हमें दर्शन कराया है। उन्होंने हिम्मत दिखाई है, स्त्री- शिक्षामें बड़ा योगदान दिया है, दलितोंकी सेवा की है, संस्कृत और हिन्दीके अध्ययन- अध्यापनमें वृद्धि की है। ऋषि दयानन्दने लड़कपनमें ही माता-पितासे सत्याग्रह करके जनताको ब्रह्मचर्यका बहुत बड़ा पदार्थ-पाठ पढ़ाया है। इन बातोंका पवित्र स्मरण हमेशा ही ताजा रहेगा। मैं विद्यादेवीजीके खादी प्रेमको जानता हूँ। मैं उनके पास एक बुनना जाननेवाली बहनको भेजनेका प्रयत्न कर रहा हूँ। कांगड़ी गुरुकुलका और मेरा सम्बन्ध पुराना है। स्वामीजीकी प्रेरणासे गुरुकुलके ब्रह्मचारियोंने शरीर-श्रम करके दक्षिण आफ्रिकामें मुझे कुछ धन भेजा था; उसे मैं किसी प्रकार नहीं भूल सकता। वहाँके अध्यापक खादी प्रेमी हैं, यह भी मैं जानता हूँ। सूपा गुरुकुलका उल्लेख 'नवजीवन' में

नहीं आ सका तो उसका कारण लापरवाही नहीं है और घृणाकी तो बात हो ही

  1. १. यहाँ नहीं दिया गया है। पत्र-लेखकने अस्पृश्योंके सम्बन्ध में आर्यसमाजियोंको द्वारा किये गये कार्यको सराहना की थी और कहा था कि आपने उनकी आलोचना सद्भावसे प्रेरित होकर की है, फिर भी उससे आपके अनुयायियोंमें भ्रम उत्पन्न हुआ है।