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भाषण : विवाहोत्सवपर


और भी कठिन हो जाता है। जान पड़ता है कि शास्त्रोंने स्वादेन्द्रियपर संयम रखने- की बातपर बहुत ज्यादा जोर नहीं दिया है। लेकिन जो मनुष्य इस संयमका पालन कर सकता है, उसके लिए ब्रह्मचर्य बिलकुल आसान हो जाता है। लेकिन स्वाद- संयम ब्रह्मचर्यके पालनसे भी अधिक कठिन है। मैंने कितने ही प्रयोग किये हैं और अब इस निश्चयपर आया हूँ। जो मनुष्य एक बार खानेकी गिनी हुई, कहिए चार वस्तुएँ ही लेता है अथवा सिर्फ दूध ही लेता है वह भी सफल नहीं होता। इसमें वह संयम तो करता ही है, परन्तु इन्द्रियों को नहीं जीतता । ऐसा मनुष्य सारे रस एक वस्तुमें से ही प्राप्त करता है। इस बातका साक्षी में खुद हूँ। भोजनकी एक वस्तुमें से भी सब रस प्राप्त किये जा सकते हैं और हम जानते हैं, जीभमें से तो सारा दिन रस निःसृत होता रहता है। हम विवशता मानकर खायें, हमें रसका भान न रहे और खानेके बन्धनसे मुक्त होनेके लिए खायें तो ठीक है। किन्तु ऐसे बहुत ही कम लोग होंगे।

कितने लोग यहाँ इसका पालन करते होंगे, यह कौन जाने; लेकिन ब्रह्मचर्य पालन करनेका तो हमारा दावा अवश्य है। तब ब्रह्मचर्यके ठीक विपरीत विवाहोत्सव करना कितनी विचित्र बात है। यह धर्म है अथवा अधर्म, हम यह नहीं जानते। मैं अपनी ओरसे 'गीता 'के इस वचनका कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है, यह पाठ्यान्तर करता हूँ कि क्या धर्म है और क्या अधर्म है।

मेरी दृष्टिमें विवाह धर्म है। संसारकी प्रत्येक प्रवृत्ति संयमके लिए है। इसलिए जहाँ भोग अनिवार्य हो उसको वहीं भोगना चाहिए। जहाँ और लोग इसमें भोग देखते हैं वहाँ मेरी अन्तरात्मा गवाही देती है कि यह भोग नहीं है। मैं उस समय ईश्वरके सम्मुख याचना करता हूँ कि तू मुझे मुक्त कर। खाते समय मलत्यागकी बात याद आती है। विवाहका प्रसंग संयमकी खातिर है। विकारोंको वशमें न कर सकें तो उन्हें संयत करें अर्थात् उन्हें एक जगह सीमित कर दें । यह व्यभिचार करनेसे तो बहुत अच्छा है। विवाहकी प्रतिज्ञामें तीन बार यही कहा गया है 'नातिचरामि'। और फिर इस विवाहकी विधि भी नितान्त धार्मिक रखी गई है। इसमें न तो लालच है और न पैसेका लेना-देना, न साज-शृंगार है और न बारातका झगड़ा। इसलिए हमें इसमें से भी संयमका ही पाठ मिलता है। हमें इसमें से संयम ही खोजना चाहिए और उसपर अमल करना चाहिए। इसीसे हमने उसमें किसीको भी नहीं बुलाया। यह आश्रमका सौभाग्य है कि उसे ऐसे युवक और युवतीके विवाह करानेका अवसर मिला है जो सोच-विचारकर और संयम पालनेका निश्चय करके इस सूत्रमें बंधे हैं।

जो अन्य युवक और युवतियाँ विवाह कराना चाहें वे निस्संकोच हो कर करें; और आश्रमका कोई बन्धन है, ऐसा मनमें न सोचें।

[गुजराती से]

रावजीभाईको हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य : आर० एन० पटेल