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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

पौंड या ३७५ रुपया वार्षिक व्यक्ति-कर लगाया जाये। इसका अर्थ यही होता था कि चूंकि किसी भी हिन्दुस्तानी मजदूरके लिए इतना कर दे सकना सम्भव नहीं था, अतः नेटालमें उसका स्वतन्त्र रूपसे रह सकना भी सम्भव न रहा। उस समय लॉर्ड एलगिन हिन्दुस्तानके वाइसराय थे । उनको यह माँग बहुत ज्यादा लगी, किन्तु अन्त में उन्होंने तीन पौंड़ वार्षिक व्यक्ति कर लगाने की मांग स्वीकार कर ली। कमाईको देखें तो यह तीन पौंडका कर किसी गिरमिटियाकी छः मासकी मजदूरीके बराबर है। फिर यह कर केवल मजदूरपर ही नहीं था, बल्कि उसकी स्त्री, तेरह साल या ज्यादा उम्रकी लड़की और १६ साल या ज्यादा उम्रके लड़केपर भी था । ऐसा मजदूर शायद ही कोई हो जिसके स्त्री और दो बच्चे न हों; इसलिए सामान्यतः प्रत्येक मजदूरको १२ पौंड वार्षिक कर देना आवश्यक हो गया। यह कर कितना दुःखदाई सिद्ध हुआ इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इस दुःखको तो भुक्तभोगी अथवा वही जिसने इसे आँखों देखा हो कुछ-कुछ समझ सकता है। नेटाल सरकारके इस कदमके विरुद्ध हिन्दुस्तानी बहुत जूझे। उन्होंने ब्रिटिश सरकारको और हिन्दुस्तानकी सरकारको अर्जियाँ भेजीं; किन्तु उनका परिणाम इससे अधिक कुछ न निकला कि २५ पौंडकी माँगकी बजाय कर ३ पौंड तय हुआ। स्वयं गिरमिटिये तो इस सम्बन्ध- में क्या कर अथवा समझ सकते थे ? यह लड़ाई तो केवल हिन्दुस्तानी व्यापारी वर्गने अपने देशप्रेमके कारण अथवा परमार्थकी दृष्टिसे ही की थी।

जो हालत गिरमिटियोंकी हुई बादमें वही स्वतन्त्र भारतीयोंकी भी हुई। नेटालके गोरे व्यापारियोंने लगभग इन्हीं कारणोंसे उनके विरुद्ध भी आन्दोलन शुरू कर दिया। हिन्दुस्तानी व्यापारी अच्छी तरह जम चुके थे। उन्होंने अच्छे-अच्छे अंचलोंमें जमीनें खरीद ली थीं। गिरमिटसे छूटे हुए हिन्दुस्तानियोंकी संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ती गई त्यों- त्यों हिन्दुस्तानियोंकी आवश्यकताकी चीजें ज्यादा बिकने लगी। हिन्दुस्तानसे हजारों बोरी चावल यहां आता और उससे अच्छा लाभ मिलता। इस व्यापारका अधिकांश भाग स्वभावतः हिन्दुस्तानी व्यापारियोंके हाथों में ही रहा। इसके अतिरिक्त हब्शियोंके साथ होने वाले व्यापारका भी अच्छा भाग उनके हाथोंमें आ गया। यह बात छोटे गोरे व्यापारियोंको सहन नहीं हुई। फिर कुछ अंग्रेजोंने ही इन हिन्दुस्तानी व्यापारियों- को यह बताया कि कानूनके मुताबिक उनको भी नेटालकी विधान सभा सदस्य बनने और सदस्य चुननेका अधिकार है। अतः कुछ लोगोंने अपने नाम भी मतदाताओं में लिखाये । नेटालके गोरे राजनीतिज्ञ इस स्थितिको सहन न कर सके, क्योंकि उनको यह चिन्ता हो गई कि यदि हिन्दुस्तानियोंकी स्थिति नेटालमें दृढ़ हो गई और उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी तो गोरे उनकी स्पर्धा में कैसे टिक सकेंगे। इसलिए उत्तरदायी सरकारने स्वतन्त्र हिन्दुस्तानियोंके सम्बन्धमें पहला कदम यह उठाया कि उन्होंने ऐसा कानून बना दिया जिससे एक भी नया हिन्दुस्तानी मतदाता न बन सके। उन्होंने इस सम्बन्धमें पहला विवेयक नेटालको विधानसभा में सन् १८९४ में रखा। इस विधेयकमें यह

१. यह वाक्य अंग्रेजीसे लिया गया है।

२. मताधिकार कानून संशोधन विधेयक।