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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सिद्धान्त निहित था कि हिन्दुस्तानियोंको हिन्दुस्तानीके रूपमें मत देनेका अधिकार न रहे। नेटालमें हिन्दुस्तानियों के विरुद्ध रंग-भेदके आधारपर उठाया गया यह पहला कानूनी कदम था। हिन्दुस्तानी लोगोंने इसका विरोध किया। उन्होंने रातों-रात एक अर्जी तैयार की और उसपर चार सौ लोगोंके हस्ताक्षर लिये गये। जब यह अर्जी विधानसभामें गई तो वह चौंक उठी। किन्तु विधेयक तो पास कर ही दिया गया । उस समय लॉर्ड रिपन उपनिवेश मन्त्री थे । इस सम्बन्धमें उनको एक अर्जी भेजी गई। इस अर्जीपर दस हजार हिन्दुस्तानियोंने हस्ताक्षर किये। दस हजार हस्ताक्षरोंका अर्थ है नेटालके लगभग सभी स्वतन्त्र हिन्दुस्तानियोंके हस्ताक्षर । लॉर्ड रिपनने इस विधेयकको अस्वीकार कर दिया और कहा कि ब्रिटिश साम्राज्य कानूनमें रंग-भेद स्वीकार नहीं कर सकता। हिन्दुस्तानियोंकी यह जीत कितनी महत्वपूर्ण थी, यह बात आगे चलकर अधिक समझमें आयेगी। नेटालकी सरकारने उत्तरमें एक नया विधेयक प्रस्तुत किया। उसमें रंगभेदकी बात तो नहीं रखी गई, किन्तु अप्रत्यक्ष रूपसे प्रहार हिन्दुस्तानियोंपर ही किया गया था। हिन्दुस्तानी लोगोंने उसके विरुद्ध लड़ाई की, किन्तु वह निष्फल हुई। इस कानूनकी दो व्याख्याएँ हो सकती थीं। उसकी व्याख्या स्पष्ट करानेके लिए हिन्दुस्तानी लोग अन्तिम अदालत अर्थात् त्रिवी कौंसिलतक लड़ सकते थे। किन्तु यह ठीक नहीं समझा गया। मुझे अब भी ऐसा लगता है कि इसके विरुद्ध न लड़ना ही ठीक था । मूल बात स्वीकार कर ली गई, इतना ही बहुत था।

किन्तु नेटालके गोरों अथवा सरकारको चैन कहाँ ! हिन्दुस्तानियोंको राजनैतिक अधिकार न मिलने देना तो जरूरी था ही, किन्तु उनकी दृष्टि तो असलमें हिन्दुस्तानि- योंके व्यापार और स्वतन्त्र हिन्दुस्तानियोंके प्रवेशपर थी । वे इस भयसे व्याकुल हो गये कि यदि तीस करोड़की आबादीवाला हिन्दुस्तान नेटालकी ओर उमड़ पड़े तो नेटालके गोरोंकी क्या दशा होगी। वे तो उस जन-समुद्रमें विलीन ही हो जायेंगे । नेटालमें आबादी लगभग इस तरह है: ४,००,००० हब्शी, ४०,००० गोरे, ३६०,००० गिर- मिटिये, १०,००० गिरमिट-मुक्त हिन्दुस्तानी और १०,००० स्वतन्त्र हिन्दुस्तानी । गोरोंके इस भयका कोई ठोस कारण नहीं था। किन्तु भयभीत मनुष्यको तर्कसे समझाया नहीं जा सकता। उन्होंने यह नहीं सोचा कि हिन्दुस्तान परतन्त्र है । उनको हिन्दुस्तानके रीति-रिवाजोंकी जानकारी भी नहीं थी। और इस कारण उनके मनमें एक प्रकारका भय पैदा हो गया था और उन्होंने यह सीधा-सा हिसाब लगा लिया कि जैसे साहसी और शक्तिमान वे स्वयं हैं अवश्य ही हिन्दुस्तानी भी वैसे ही साहसी और शक्तिमान

१. देखिए खण्ड १, पृ४ ९३-९८ ।

२. १८२७-१९०९; भारतके वाइसराय, १८८०-४; उपनिवेश मन्त्री, १८९२-९५। प्रार्थनापत्रके पाठके लिए देखिए खण्ड १, पृष्ठ १८९-२११ ।

३. साम्राज्यीय सरकारने विधेयकपर मंजूरी न देनेके अपने इरादेको सूचना १२ सितम्बर, १८९५ को नेटाल सरकारको दी थी।

४. खण्ड ३ के अनुसार; “उपनिवेशमें गोरे लोगोंको आबादी ६०,००० है और इतनी हो बड़ी संख्या में वहां ब्रिटिश भारतीय बसे हुए हैं। " पृष्ठ २६२ ।