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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

होंगे। इसमें उनको दोष कैसे दें ? कुछ भी हो, किन्तु इसका परिणाम यह हुआ कि नेटालकी विधानसभा में दो दूसरे कानून स्वीकार किये गये । इन कानूनोंमें भी मता- विकार सम्बन्धी लड़ाईमें हुई जीतके फलस्वरूप रंगभेदको सामने न रखकर कूट भाषासे काम लिया गया । फलस्वरूप स्थितिकी कुछ रक्षा हुई। हिन्दुस्तानी लोग इस बार भी खूब लड़े; किन्तु कानून तो फिर भी पास हो ही गये । एक कानूनसे हिन्दु- स्तानियोंके व्यापारपर कड़ा प्रतिबन्ध लगा और दूसरेसे हिन्दुस्तानियोंके प्रवेशपर । पहलेके मुताबिक इस कानूनके अन्तर्गत नियुक्त किये गये परवाना अधिकारीकी मंजू- रीके बिना किसीको भी व्यापारका परवाना नहीं मिल सकता था। किन्तु व्यवहारमें होता यह था कि गोरा कोई भी जाये उसे परवाना मिल जाता और हिन्दुस्तानीको परवाना लेनेमें भारी परेशानी उठानी पड़ती। उसे वकील आदिका खर्च तो उठाना ही होता था। इस कारण ऐसा वैसा हिन्दुस्तानी व्यापारी तो इस खट-पटमें नहीं पड़ता था। दूसरे कानूनकी मुख्य शर्त यह थी कि जो हिन्दुस्तानी किसी यूरोपीय भाषामें अर्जी लिख सकता है वही नेटालमें प्रवेश कर सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि हिन्दुस्तानियोंके लिए नेटाल आनेका द्वार बन्द ही हो गया। जाने-अनजाने नेटाल सरकारके प्रति अन्याय न हो जाये, इसलिए मुझे यह बता देना चाहिए कि जो हिन्दु- स्तानी यह कानून बनने से पहले नेटालमें बस गये थे और फिर नेटाल छोड़कर हिन्दु- स्तान अथवा किसी दूसरी जगह चले गये हों, वे इच्छा होनेपर यूरोपकी कोई भाषा जाने बिना ही अपनी स्त्री और अपने अवयस्क बच्चोंके सहित नेटालमें आ सकते थे ।

नेटालके गिरमिटियों और स्वतन्त्र हिन्दुस्तानियोंके विरुद्ध इनके अतिरिक्त कानूनी और दीगर अन्य निर्योग्यताएँ भी थीं और इस समय भी हैं। पाठकोंको उन सबकी जानकारी देना मुझे जरूरी नहीं लगता। इस पुस्तकके विषयको समझने के लिए जितना जानना जरूरी है मैं केवल उतना ही देना ठीक समझता हूँ । पाठक यह तो समझ ही सकते हैं कि दक्षिण आफ्रिकाके सभी उपनिवेशोंमें हिन्दुस्तानियोंकी स्थितिका इति- हास बहुत विस्तृत होगा; किन्तु वह सारा इतिहास देना इस पुस्तकका उद्देश्य कदापि नहीं है ।

अध्याय ५

मुसीबतोंका सिंहावलोकन ( २ )

ट्रान्सवाल और दूसरे उपनिवेश

नेटालकी तरह दक्षिण आफ्रिकाके दूसरे उपनिवेशोंमें भी हिन्दुस्तानियोंके प्रति कम ज्यादा द्वेष-भाव सन् १८८० के पहलेसे ही आरम्भ हो गया था। केप कालोनीको छोड़कर अन्य सभी उपनिवेशोंका यही एक मत बन गया था कि हिन्दुस्तानी मजदूरोंके रूपमें बहुत अच्छे हैं। किन्तु बहुतसे गोरोंके मनमें यह बात घर कर गई थी कि

१. विक्रेता परवाना अधिनियम और प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियम, १८९७; देखिए खण्ड २, पृष्ठ २६७-२७३ और ३७९-३८६ ।