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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

स्वतन्त्र हिन्दुस्तानियोंसे तो दक्षिण आफ्रिकाको हानि ही पहुँचती है। ट्रान्सवाल प्रजा- तन्त्रीय शासन था । ट्रान्सवालके राष्ट्रपतिसे अपने ब्रिटिश प्रजा होनेकी बात कहना अपनी हँसी कराने जैसा था। यदि हिन्दुस्तानियोंको कोई शिकायत करनी हो तो वे केवल ब्रिटिश राजदूतके सामने ही उसे पेश कर सकते थे। किन्तु आश्चर्य तो यह है कि ट्रान्सवाल जब ब्रिटिश साम्राज्यसे बिलकुल अलग था तब ब्रिटिश राजदूत जो सहायता कर पाता था ट्रान्सवालके ब्रिटिश साम्राज्यमें आनेपर उस सहायताका मिलना बिलकुल बन्द हो गया। लॉर्ड मॉर्लेके' भारत मन्त्री रहते हुए जब ट्रान्सवालके हिन्दु- स्तानियोंका शिष्टमण्डल अपना मामला लेकर उनके पास गया था तब उन्होंने यह साफ-साफ कहा था, 'आप तो जानते ही हैं कि उत्तरदायी शासन प्राप्त राज्योंपर ब्रिटिश सरकारका नियन्त्रण बहुत कम है। ब्रिटिश सरकार स्वतन्त्र राज्योंको लड़ाई- की धमकी दे सकती है और उनसे लड़ाई कर भी सकती है, किन्तु उपनिवेशोंसे तो केवल बातचीत ही की जा सकती है। उनके साथ ब्रिटिश सरकारका सम्बन्ध रेशमके धागेकी तरह बहुत ही नाजुक है और वह थोड़ा-सा भी खींचनेसे टूट जा सकता है। उनके मामलेमें शक्तिसे तो काम लिया ही नहीं जा सकता। इसलिए मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि युक्तिसे जितना कर सकूँगा उतना सब करूंगा। और पहले जब ट्रान्सवालसे लड़ाई छिड़ी थी तो लॉर्ड लैन्सडाउन, लॉर्ड सेल्बोर्न और दूसरे अंग्रेज अधिकारियोंने कहा था कि लड़ाईका एक कारण वहाँके हिन्दुस्तानियोंकी दुःख- जनक स्थिति भी है।

अब हम इन दुःखोंके सम्बन्धमें विचार करें। हिन्दुस्तानी ट्रान्सवालमें पहले- पहल १८८१ में आये थे । स्वर्गीय सेठ अबूबकरने ट्रान्सवालकी राजधानी प्रिटोरियामें दूकान खोली और उसके मुख्य मुहल्लेमें जमीन भी खरीदी। फिर वहाँ एकके बाद एक दूसरे व्यापारी भी गये । उनका व्यापार बड़ी तेजीसे चला इसलिए गोरे व्यापारि योंको उनसे ईर्ष्या हुई । हिन्दुस्तानियोंके विरुद्ध अखबारोंमें लेख लिखे जाने लगे। ट्रान्स- वालकी विधानसभामें अर्जियाँ दी गई और उनमें मांग की गई कि हिन्दुस्तानियोंको निकाल दिया जाये और उनका व्यापार बन्द कर दिया जाय। इस नये देशमें गोरोंकी धनेषणाका पार नहीं था। नीति और अनीतिमें वे कदाचित् ही भेद करते थे। विधान सभामें दी गई उनकी याचिकामें इन वाक्योंको देखिए: "ये लोग (हिन्दुस्तानी व्यापारी) मानवीय सभ्यताको जानते ही नहीं। वे बदचलनीसे होनेवाली बीमारियोंसे सड़ रहे हैं। वे सभी स्त्रियोंको अपना शिकार समझते हैं और उनमें आत्मा नहीं मानते । इन चारों वाक्योंमें से हरएकमें एक-एक झूठ हैं। ऐसे बहुत से दूसरे उदा- हरण भी दिये जा सकते हैं। जैसे लोग होते हैं वैसे ही उनके प्रतिनिधि होते हैं। हमारे व्यापारियोंको इस बातका पता भी कैसे चलता कि उनके विरुद्ध ऐसी बेहूदी और अन्यायपूर्ण हलचल की जा रही है। वे अखबार भी नहीं पढ़ते थे। अखबारोंकी हलचल और अर्जियोंका असर विधान सभापर हुआ और उसमें एक विधेयक प्रस्तुत

१. (१८३८-१९२३) भारत-मंत्री, १९०५-१०।

२. देखिए खण्ड ६, पृष्ठ २१९-२३१ तथा २३५-३७।