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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

स्तानियोंसे ली जानेवाली पंजीयन शुल्ककी रकम २५ पौंडके बजाय तीन पौंड कर दी गई और जमीनें खरीदने पर पाबन्दीकी जो कड़ी शर्त थी उसकी जगह यह शर्त रख दी गई कि ट्रान्सवाल सरकार जिस क्षेत्र या बाड़ेमें निश्चित करे हिन्दुस्तानी वहाँ जमीन खरीद सकते हैं। सरकारने इस धारापर भी ईमानदारीसे अमल नहीं किया, इसलिए इन क्षेत्रों या बाड़ोंमें भी उनको जमीनकी जड़-खरीदका अधिकार नहीं दिया। ये बाड़े जिन शहरोंमें हिन्दुस्तानी रहते थे उनमें बस्तीसे बहुत दूर और बहुत ही गन्दी जगहोंमें रखे गये। वहाँ पानी और रोशनीकी सुविधा तथा पाखाना- सफाई करनेकी व्यवस्था भी पर्याप्तसे बहुत कम ही थी। इससे हम हिन्दुस्तानी ट्रान्सवालकी पंचम जाति बन गये और यह कहा जा सकता है कि इन बाड़ोंमें और हिन्दुस्तान के ढेढ़-वाडोंमें बिलकुल अन्तर नहीं रहा। जैसे हिन्दू ढेढ़को छूकर अथवा ढेढ़ोके पड़ोसमें रहकर अपनेको भ्रष्ट हुआ मानता है वैसे ही गोरे भी हिन्दुस्तानियोंके स्पर्श और पड़ोससे अपनेको भ्रष्ट मानते थे। स्थिति लगभग ऐसी ही आ गई थी। इसके अलावा सन् १८८५ के कानून (३) का अर्थ ट्रान्सवालकी सरकारने यह किया कि हिन्दुस्तानी व्यापारी व्यापार भी इन बाड़ोंमें ही कर सकते हैं। उसका यह अर्थ ठीक है या नहीं, पंचायतने इसका फैसला करना ट्रान्सवालकी अदालतोंपर छोड़ दिया था; इसलिए हिन्दुस्तानी व्यापारियोंकी स्थिति अत्यन्त संकटपूर्ण हो गई। फिर भी उन्होंने कहीं बातचीत, कहीं मुकदमा और किसी जगह सिफारिशसे काम लेना शुरू किया । वे इस तरह अपनी स्थितिकी रक्षा कर सके। जिस समय बोअर युद्ध शुरू हुआ उस समय ट्रान्सवालको स्थिति ऐसी ही दुःखद और अनिश्चित थी।

अब हम ऑरेन्ज फ्रो स्टेटको स्थिति देखें। वहाँ हिन्दुस्तानियोंकी दस-पन्द्रह से ज्यादा दूकानें भी नहीं खुल पाई होंगी कि गोरोंने तभीसे भारी आन्दोलन आरम्भ कर दिया। वहाँकी विधान सभाने सावधानीसे काम लिया और इस झगड़ेकी जड़ ही काट दी। उसने एक कड़ा कानून बनाया और थोड़ा-सा मुआवजा देकर सभी हिन्दु- स्तानी व्यापारियोंको ऑरेंज फ्री स्टेटसे निकाल दिया। इस कानूनके अनुसार हिन्दु- स्तानी व्यापारी जमीनोंके मालिक या किसानोंके रूपमें राज्यमें नहीं बस सकते थे और मतदाता तो बन ही नहीं सकते थे। वे विशेष स्वीकृति लेकर मजदूरों अथवा होटलोंके बैरोंके रूपमें वहाँ रह सकते थे; किन्तु ऐसी स्वीकृति भी सभी प्राथियोंको नहीं मिल सकती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि ऑरेंज फ्री स्टेटमें कोई प्रतिष्ठित हिन्दुस्तानी दो चार दिन रहना चाहे तो यह भी बहुत कठिनाईसे ही हो सकता था। लड़ाईके दिनोंमें वहाँ लगभंग चालीस हिन्दुस्तानी बैरे थे। उनके अतिरिक्त वहाँ दूसरा कोई हिन्दुस्तानी नहीं था ।

केप कालोनीमें यद्यपि अखबारोंमें हिन्दुस्तानियोंके विरुद्ध थोड़ा-बहुत आन्दोलन होता रहता था - हिन्दुस्तानी बालक शालाओं में नहीं जा सकते थे, हिन्दुस्तानी यात्री

१. देखिए खण्ड २, पृ४ ३१ से ३३ और १४९-५० ।

२. देखिए खण्ड २, पृष्ठ ३५१-२ ।

३. देखिए खण्ड २, पृष्ठ ७४-५।