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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

नेटाल पहुँचनेपर पन्द्रह दिनके भीतर ही वहाँ की अदालतोंका जो अनुभव हुआ, गाड़ियोंमें जो कठिनाई आई, यात्रा करते हुए रास्ते में जो मार खाई, वहाँके होटलोंमें ठहरनमें जो दिक्कतें सामने आई. - उनमें ठहरना लगभग असम्भव था - उन सारी बातोंका वर्णन मैं यहाँ नहीं करूंगा। इतना अवश्य कहूँगा कि ये सब अनुभव मेरे मर्ममें भिद गये। मैं तो केवल एक ही मुकदमेके सम्बन्धमें गया था और मेरी दृष्टि स्वार्थ और कुतूहलकी दृष्टि थी; इसलिए उस वर्ष-भर तो मैं ऐसे कष्टोंका केवल साक्षी रहकर अनुभव ही करता रहा। किन्तु अपना कर्त्तव्य समझकर तदनुसार व्यवहार तो उसके बाद आरम्भ हुआ। मैंने देख लिया कि स्वार्थकी दृष्टिसे दक्षिण आफ्रिकाका मेरे लिए कोई अर्थ नहीं है। जहाँ अपमान हो वहाँ पैसा कमाने अथवा सैर-सपाटा करनेका मुझे कोई लोभ नहीं हो सकता। इतना ही नहीं यह मुझे अत्यन्त अरुचिकर मालूम पड़ता था। मेरे सामने धर्म-संकट उपस्थित था। एक मार्ग यह था कि जिन परिस्थितियोंको मैं पहले जानता नहीं था उन्हें जान लेनेपर मैं सेठ दादा अब्दुल्ला के साथ किये हुए अपने इकरारसे छुटकारा माँगकर पलायन कर जाऊँ और दूसरा मार्ग यह था कि जो भी संकट आये उनको सहकर हाथमें लिये कामको पूरा करूँ। मैं मैरित्सबर्ग स्टेशनपर रेलवे पुलिसके धक्के खाकर गाड़ीसे उतरकर और अपनी यात्रा स्थगित करके कड़ाकेकी सर्दीमें मुसाफिर खानमें बैठा था। मेरा सामान कहाँ है इसका मुझे कोई होश न था । किसीसे पूछनेकी हिम्मत भी न होती थी। भय था कि कोई फिर अपमान करे और मुझे मार खानी पड़े तो ? ऐसी स्थितिम सर्दीसे काँपते हुए नींद भी कैसे आती ! मन संकल्प-विकल्पोंमें डूबा था। बहुत रात गये मैंने निश्चय किया कि भागकर चले जाना तो कायरता है। हाथमें लिया काम तो पूरा करना ही चाहिए। व्यक्तिगत अपमान हो तो उसे सहकर और मार खानी पड़े तो मार खाकर प्रिटोरिया पहुँचना ही चाहिए। प्रिटोरिया मेरा सदर मुकाम था । मुकदमा वहीं चल रहा था । यदि सम्भव हो तो मुझे अपना काम करते हुए परि- स्थितियोंको सुधारनेका कोई उपाय भी करना ही चाहिए। यह निश्चय करनेके बाद मुझे कुछ शान्ति मिली और मैंने कुछ शक्तिका भी अनुभव किया। किन्तु सो तो मैं बिलकुल ही न सका ।

सुबह होते ही तुरन्त मैंने दादा अब्दुल्लाकी पेढ़ीको और रेलवेके जनरल मैनेजरको तार दिया। दोनों जगहसे जवाब भी आया। दादा अब्दुल्लाने और उस समय नेटालमें रहनेवाले उनके भागीदार सेठ अब्दुल्ला हाजी आदम झवेरीने यथोचित कार्रवाई की। उन्होंने अलग-अलग जगहोंपर अपने हिन्दुस्तानी आड़तियोंको तार दे दिये कि वे मेरी खबरदारी रखें। वे जनरल मैनेजरसे भी मिले। आड़तियोंको दिये गये तारोंके परि- णामस्वरूप मैरित्सबर्गके हिन्दुस्तानी व्यापारी मुझसे मिले। उन्होंने मुझे आश्वासन देते हुए कहा कि मेरे जैसे अनुभव तो उन सभीको हो चुके हैं, किन्तु आदत पड़ जानेसे अब वे उनकी परवाह नहीं करते। व्यापार करना और मन कच्चा रखना, इन दोनों- का मेल कैसे हो सकता है। और इसीलिए उन्होंने अपमान हो तो उसे भी पैसेके साथ पेटीमें जमाकर रखना अपना सिद्धान्त बना लिया है। उन्होंने मुझे यह भी बताया