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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कि इसी स्टेशनपर हिन्दुस्तानियोंको मुख्य दरवाजेसे आनेकी मनाही है और टिकटें खरीदनेमें भी बहुत दिक्कत होती है। मैं उसी रातकी गाड़ीसे प्रिटोरिया रवाना हो गया। अपने निश्चयपर दृढ़ हूँ या नहीं, इसकी परीक्षा अन्तर्यामी प्रभुने भलीभांति कीं। मुझे प्रिटोरिया पहुँचनेसे पहले और भी अपमान सहना पड़ा और मार खानी पड़ी, किन्तु उस सबका असर मेरे मनपर यही हुआ कि मुझे अपने निश्चयपर दृढ़ रहना चाहिए।

इस प्रकार सन् १८९३ में मैंने अनायास ही दक्षिण आफ्रिकाके हिन्दुस्तानियोंकी स्थितिको पूरी तरह देख-समझ लिया। प्रसंग आनेपर में इस विषयमें प्रिटोरियाके हिन्दु- स्तानियोंसे बातचीत करता था और उनको समझाता भी था, किन्तु मैंने इससे अधिक कुछ नहीं किया। मुझे ऐसा लगा कि दादा अब्दुल्ला के मामलेकी पैरवी और दक्षिण आफ्रिकाके हिन्दुस्तानियोंके कष्ट दूर करनेमें जुटना साथ-साथ नहीं हो सकता। मैंने समझ लिया था कि दोनोंको करूंगा तो दोनों बिगड़ेंगे । जैसे-जैसे सन् १८९४ आ गया । मुकदमा भी खत्म हो गया। मैं डर्बन वापस आ गया। मैंने स्वदेश लौटनकी तैयारी की । दादा अब्दुल्लाने मुझे विदाई देनेके लिए एक सभा भी की। उसी सभामें किसीने डर्बन- के 'मर्क्युरी' अखबारकी एक प्रति मुझे दी जिसमें विधानसभाकी कार्यवाहीका विस्तृत विवरण था। इस विवरणमें मैंन 'हिन्दुस्तानी मताधिकार' शीर्षकके नीचे कुछ पंक्तियाँ पढ़ीं । उनको पढ़नसे मुझे लगा कि यह तो हिन्दुस्तानियोंके सारे ही हकोंको छीननेका श्रीगणेश हो रहा है। विधानसभाके सदस्योंके भाषणोंसे भी यह मंशा स्पष्ट होता था । सभामें आये हुए सेठों और दूसरे लोगोंको मैंने यह खबर पढ़नेके लिए दी और उसे मैं जितना समझा सका उतना मैंने उनको समझाया । कार्रवाईकी तफसील तो मुझे मालूम नहीं थी। मैंने सुझाव दिया कि हिन्दुस्तानियोंको इस आक्रमणका विरोध करते हुए डटकर लड़ाई करनी चाहिए। इसकी आवश्यकता उन्होंने भी स्वीकार की, किन्तु कहा कि ऐसी लड़ाई उनके सामर्थ्यके बाहरकी बात है और इसके लिए मुझसे वहीं रुक जानेका आग्रह किया। मैंने यह लड़ाई जबतकं खत्म न हो तबतक अर्थात् महीना- दो-महीना वहाँ ठहर जाना स्वीकार किया। मैंने उसी रात विधानसभामें देनेके लिए अर्जी तैयार की। विधेयकपर विचार स्थगित करनेके लिए तार भी दे दिया गया और उसी समय एक समिति नियुक्त कर दी गई। सेठ अब्दुल्ला हाजी आदम अध्यक्ष बनाये गये । तार उन्हींके नामसे दिया गया था। फलस्वरूप विधेयकपर दो दिनके लिए विचार मुल्तवी कर दिया गया। दक्षिण आफ्रिकी विधानसभामें हिन्दुस्तानियोंकी यह पहली अर्जी थी। इसका असर भी खासा हुआ, किन्तु विधेयक तो स्वीकार हो ही गया । मैं चौथे प्रकरणमें उसका परिणाम सूचित कर चुका हूँ। ऐसी लड़ाई लड़नेका वहाँ यह पहला ही अनुभव था। इससे हिन्दुस्तानियोंमें बहुत उत्साह पैदा हुआ। हर रोज सभाएँ होने लगीं और उनमें लोग अधिकाधिक संख्या में उपस्थित होने लगे। पैसा भी इस कामके लिए जितना जरूरी था उससे ज्यादा इकट्ठा हो गया। प्रार्थनापत्रकी नकलें करने और उसपर लोगोंके हस्ताक्षर लेने आदिके कामोंमें सहायता देनेके लिए बिना पैसे

१. देखिए खण्ड १, पृ४ ९३-९८ ।

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