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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भी कुछ अन्तर था। मैं पाठकोंको उस भेदमें नहीं उलझाऊँगा । केपटाउनमें भी इस प्रकारकी संस्था थी। उसका संविधान नेटाल और ट्रान्सवालकी संस्थाओंसे भी अलग प्रकारका था। फिर भी तीनोंकी हलचलें लगभग एक ही प्रकारकी मानी जा सकती हैं।

१८९४ का साल पूरा गुजर गया। १८९५ के मध्यमें कांग्रेसको भी काम करते हुए एक वर्ष हो गया। मेरा वकालतका काम भी मेरे मुवक्किलोंको पसन्द आया । मेरे दक्षिण आफ्रिकामें रहनेकी मियाद बढ़ी। मैं सन् १८९६ में ६ माहका अवकाश माँगकर हिन्दुस्तान आया। किन्तु यहाँ पूरे छः माह नहीं बिता सका था कि नेटालसे तार आ गया । इस तारके कारण मुझे तुरन्त वापस जाना पड़ा । १८९६-९७ का विवरण हम अगले प्रकरणमें देंगे।

अध्याय ७

हिन्दुस्तानियोंने क्या किया - २

इस प्रकार नेटाल भारतीय कांग्रेसका काम जम गया। मुझे भी नेटालमें प्रायः राजनैतिक काम करते हुए ही लगभग ढाई साल बीत चुके थे। इसलिए मैंने सोचा कि यदि मैं दक्षिण आफ्रिकामें और अधिक रहता हूँ तो मुझे अपने परिवारको साथ रखना जरूरी है। मेरी इच्छा एक चक्कर देशमें लगा आनेकी भी हुई। मैंने यह भी सोचा कि मैं इस चक्करमें हिन्दुस्तानके नेताओंको भी नेटाल और दक्षिण आफ्रिकाके दूसरे भागोंके हिन्दुस्तानियोंकी स्थितिकी संक्षेपमें कल्पना करा दूंगा । कांग्रेसने मुझे ६ महीनेकी छुट्टी दे दी और मेरी जगह नेटालके प्रसिद्ध व्यापारी स्वर्गीय आदमजी मियाँ खाँको मन्त्री बना दिया। उन्होंने अपना काम बड़ी समझदारीसे किया। स्वर्गीय आदमजी मियाँ खाँ अंग्रेजी अच्छी जानते थे। उन्होंने भाषाका अपना यह काम चलाऊ ज्ञान अनुभवसे बढ़ा लिया था। उनको गुजरातीका भी सामान्य अभ्यास था। उनका व्यापार मुख्यतः हन्शियोंके साथ था इसलिए उनका जुलु लोगोंकी भाषा और उनके रीति-रिवाजोंसे भी ठीक परिचय था । वे स्वभावसे शान्त और मिलनसार थे । जितना जरूरी होता, उतना ही बोलते थे। यह सब लिखनेका उद्देश्य यह बताना है कि किसी बड़े जिम्मेदारीके पदको सम्भालनेके लिए अंग्रेजी भाषा अथवा दूसरी प्रकारके जबर्दस्त अक्षर ज्ञानकी अपेक्षा सचाई, शान्ति, सहनशीलता, दृढ़ता, सामूहिक सूझ-बूझ, साहस और व्यवहार बुद्धिकी ज्यादा जरूरत होती है। यदि ये गुण न हों तो सामाजिक कार्योंमें ऊँचेसे-ऊँचे शिक्षणकी कीमत घेले-भर भी नहीं होती।

सन् १८९६ के बीच में हिन्दुस्तान वापस आ गया। मैं कलकत्ता होकर आया था, क्योंकि उस समय नेटालसे कलकत्ते आनेवाले जहाज आसानीसे मिल जाते थे। गिरमिटिये कलकत्ते अथवा मद्राससे जहाजमें बैठते थे । कलकत्तेसे बम्बई आते समय रास्ते में गाड़ी चूक गया; इसलिए एक दिन इलाहाबादमें रुकना पड़ा। मैंने अपना काम वहींसे शुरू कर दिया। मैं 'पायोनियर' के सम्पादक श्री चेजनीसे

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