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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैं आपको इतना वचन देता हूँ कि आगे आनेवाले लोगोंको रोकनेका नेटाल सरकार विधान सभासे अधिकार ले लेगी। यह तो मैंने श्री एस्कम्बके भाषणका सार ही दिया है। उनके भाषणको सुनकर लोगोंको निराशा तो हुई, किन्तु नेटालके गोरोंपर उनका सदासे बड़ा प्रभाव था, इसलिए वे उनके कहने से बिखर गये और दोनों जहाज बन्दरगाहमें आ गये ।

श्री एस्कम्बने मेरे सम्बन्धमें यह सन्देश भेजा कि मैं दिन रहते जहाजसे न उतरूँ। वे शामको मुझे लेनेके लिए बन्दरगाहके व्यवस्थापकको भेजेंगे। मैं उन्हींके साथ अपने घर जाऊँ । मेरा परिवार जब चाहे तब उतर सकता है। यह कोई कानूनी हुक्म न था, बल्कि कप्तानने मुझे जहाजसे न उतरने देनेकी सलाह दी और मेरे सम्मुख जो खतरा मौजूद था उससे भी मुझे सचेत किया। कप्तान मुझे जबर- दस्ती तो रोक ही नहीं सकता था, फिर भी मैंने उसकी यह सलाह मान लेना तय किया। अपने बाल-बच्चोंको भी मैंने अपने घर नहीं भेजा, बल्कि डर्बनके प्रसिद्ध व्यापारी और अपने पुराने मुवक्किल तथा मित्र पारसी रुस्तमजीके घर यह कहकर भेज दिया कि मैं उनसे वहीं आ मिलूंगा। यात्री और अन्य सब लोग जहाजसे उतर- कर चले गये थे तब दादा अब्दुल्लाके वकील और मेरे मित्र श्री लॉटन वहाँ आये और मुझसे मिले। उन्होंने मुझसे पूछा, "आप अभीतक क्यों नहीं उतरे हैं ? " मैंने श्री एस्कम्बकी चिट्ठीकी बात बताई। उन्होंने कहा, “मुझे तो शाम होनेकी राह देखना और फिर अपराधी अथवा चोरकी तरह शहरमें जाना पसन्द नहीं है। यदि आपको कोई डर न हो तो आप मेरे साथ इसी समय चलें । हम मानो कुछ न हुआ हो इस तरह पैदल ही शहरमें होकर चलें ।” मैंने कहा, " मैं भय तो किसी तरहका नहीं मानता किन्तु मेरे सम्मुख विवेक-अविवेकका प्रश्न इतना अवश्य है कि मैं श्री एस्कम्बकी सलाहको मानूं या न मानूँ । इस सम्बन्धमें कप्तानकी जिम्मेदारी भी कुछ है या नहीं, इसे भी थोड़ा सोच लेना चाहिए । ' श्री लॉटन हँसकर बोले, "श्री एस्कम्बने ऐसा क्या किया है, जिससे आपको उनकी सलाहपर तनिक भी ध्यान देनेकी जरूरत हो। फिर उनकी सलाहके पीछे विशुद्ध भलमनसाहत है, कोई छल-कपट नहीं है, यह मान लेनेका भी आपके पास क्या कारण है ? शहरमें क्या हुआ है और उसमें इन महाशयका कितना हाथ है, यह बात आपकी अपेक्षा में अधिक जानता हूँ । मैंने बीचमें कुछ कहना चाहा किन्तु वे नहीं रुके। उन्होंने कहा यह मान भी लें कि उन्होंने यह सलाह नेकनीयतीसे दी है, किन्तु इसके बावजूद मेरा पक्का विश्वास है कि इस सलाहपर अमल करने से आपकी बदनामी होगी। इसलिए मेरी सलाह तो यह है कि यदि आप तैयार हों तो हम यहाँसे इसी समय रवाना हो जायें। कप्तान तो अपना ही आदमी है। इसलिए उसकी जिम्मेदारी अपनी जिम्मेदारी है। उससे जवाब-तलब करेंगे तो दादा अब्दुल्ला ही करेंगे । वे क्या सोचेंगे, यह मैं जानता हूँ । उन्होंने इस लड़ाईमें बहुत वीरता दिखाई है। मैंने कहा, 'तब हम चलें। मुझे कोई तैयारी नहीं करनी है। केवल अपनी पगड़ी सिरपर रख लूं और कप्तानको कहकर हम यहाँसे रवाना हो जायें।" हमने कप्तानकी अनुमति ले ली।

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