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दक्षिण आफ्रिका सत्याग्रहका इतिहास

पत्रोंकी नकलें आदि भेजनेके डाकखर्चमें और सामान्य खर्चके लिए सुविधाकी दृष्टिसे कमसे कम दस पौंड भेजे जाते थे ।

मैं यहाँ दादाभाईका एक पुनीत संस्मरण दे दूँ । दादाभाई इस ब्रिटिश समितिके प्रमुख नहीं थे। फिर भी मुझे ऐसा लगा कि पैसा उन्हींके मार्फत भेजना ठीक होगा । वे चाहेंगे तो उसे अध्यक्षको दे देंगे । किन्तु पहली बार जो पैसा भेजा, दादाभाईने उसको लौटा दिया और हमें लिखा, आप लोगोंको समितिसे सम्बन्धित पैसा आदि भेजनेका सब काम सर विलियम वेडरबर्नके मार्फत ही करना चाहिए। उसमें मैं तो सहायता दूंगा ही; किन्तु समितिकी प्रतिष्ठा सर विलियम वेडरबर्नके मार्फत काम करनेसे ही बढ़ेगी। मैंने यह भी देखा कि दादाभाई वृद्धावस्थामें अशक्त हो जानेपर भी पत्रव्यवहारमें बहुत नियमित थे । यदि उनको कोई खास बात नहीं लिखनी होती थी तो भी पत्रकी पहुँच तो वे लौटती डाकसे ही दे देते थे और उसीमें एक पंक्ति आश्वासनकी भी जोड़ देते थे । ऐसे छोटे-मोटे पत्र भी वे स्वयं ही लिखते थे और उसकी नकल भी अपनी टिश्यू पेपरकी पुस्तिकामें रख लेते थे ।

एक पिछले प्रकरणमें मैं यह भी बता चुका हूँ कि यद्यपि मैंने संस्थाका नाम 'कांग्रेस' रखा था, फिर भी मैंने प्रश्नको एकपक्षीय बनानेका विचार कभी नहीं किया । इसलिए दादाभाईकी जानकारीमें ही हमारा पत्र-व्यवहार अन्य पक्षोंके साथ भी चलता था । पत्र-व्यवहार जिन मुख्य दो व्यक्तियोंके साथ होता था वे थे सर मंचरजी भाव- नगरी और सर विलियम विल्सन हंटर । सर मंचरजी भावनगरी उस समय ब्रिटिश संसदके सदस्य थे । वे हमारी बहुत सहायता करते थे और सदा सलाह भी देते रहते थे। किन्तु दक्षिण आफ्रिकाके प्रश्नका महत्त्व हिन्दुस्तानियोंसे भी पहले सर विलि- यम विल्सन हंटरने समझा और उसके सम्बन्धमें मूल्यवान सहायता दी। वे 'टाइम्स के हिन्दुस्तानियोंसे सम्बन्धित विभागके सम्पादक थे। हमारा पहला पत्र पानेके बादसे ही उन्होंने अपने विभागमें दक्षिण आफ्रिकाकी स्थितिको उसके सच्चे रूप में प्रस्तुत करना आरम्भ कर दिया था और साथ ही वे इस सम्बन्धमें जिनसे पत्रव्यवहार उचित समझते थे उनसे पत्र-व्यवहार भी शुरू कर दिया था। जब कोई महत्त्वपूर्ण प्रश्न चल रहा होता था तब लगभग प्रति सप्ताह हमें इनका पत्र मिलता था । इन्होंने अपने पहले ही पत्रमें यह लिखा था, “आपने जो स्थिति बताई है उसको जानकर मुझे दुःख हुआ है। आप अपना काम विनय, शान्ति और संयमसे कर रहे हैं। इस प्रश्न के सम्बन्धमें मेरी सहानुभूति पूर्णतः आपके साथ है । मैंने यह निश्चय किया है कि आपके साथ न्याय करवानेके लिए मुझसे जितना हो सकेगा मैं उतना प्रयत्न निजी और सार्वजनिक रूपसे करूँगा । मुझे लगता है कि हम अपनी माँगोंको तनिक भी कम नहीं कर सकते । आपकी मांगें इतनी संयत है कि उनमें कमी करनेका सुझाव कोई निष्पक्ष मनुष्य नहीं दे सकता।" उन्होंने 'टाइम्स' में प्रकाशित अपने पहले लेखमें भी लगभग यही लिखा था। वे अन्ततक इसी स्थितिपर कायम रहे। उनकी पत्नीका एक पत्र हमें मिला था जिसमें उन्होंने लिखा था कि उन्होंने अपनी मृत्युसे कुछ पहले हिन्दुस्तानियोंके प्रश्नपर लिखनेके लिए एक लेखमालाकी रूपरेखा तैयार की थी।


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