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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

है। यदि कोई अन्तर है तो वह मात्राका है। फिर हम तो गुलाम ही माने जाते हैं । हम यह बात जानते हैं कि बोअरोंकी छोटी-सी जमात अपने अस्तित्वके लिए लड़ रही है, फिर हम उसके विनाशके कारण क्यों बनें और यदि व्यवहार-दृष्टिसे सोचें तो कोई यह भी नहीं कह सकता कि अन्तमें बोअर हारेंगे। यदि वे जीत जायेंगे तो हमसे वैर निकालने में कोई कसर नहीं रखेंगे।"

हम लोगों में से जिन्होंने यह तर्क बहुत जोरसे रखा उनका पक्ष काफी सबल था । मैं स्वयं भी इस तर्कको समझ गया था और मैंने उसे आवश्यक महत्त्व दिया। फिर भी मुझे यह तर्क ठीक न लगा और मैंने अपने मनमें इस तर्कको समझकर हिन्दुस्तानी समाजको इस प्रकार समझाया कि :

"हम दक्षिण आफ्रिकामें केवल ब्रिटिश प्रजाके रूपमें ही रहते हैं। हमने जितनी अजियाँ दी हैं उन सभीमें ब्रिटिश प्रजाकी हैसियतसे अपने अधिकार मांगे हैं। हमने ब्रिटिश प्रजा होनेमें अपना सम्मान समझा है और राज्याधिकारियों और संसारको भी यह बताया है कि हमारा सम्मान इसीमें है। राज्याधिकारियोंने भी ब्रिटिश प्रजा होने के नाते ही हमारे अधिकारोंकी रक्षा की है और हमारे अधिकारोंकी जितनी भी रक्षा हो सकी है उतनी ब्रिटिश प्रजा होने के कारण ही हो सकी है। हमें अंग्रेज दक्षिण आफ्रिकामें कष्ट देते हैं इस कारण उनके और अपने घरबार नष्ट हो सकनेकी घड़ीमें हम हाथपर-हाथ घरे किसी तमाशबीनकी तरह तमाशा खड़े देखते रहें, यह हमारी मनुष्यताको शोभा नहीं देता; इतना ही नहीं, बल्कि यह तो अपने कष्टोंको और भी बढ़ा लेने जैसा होगा। जिस आरोपको हमने झूठ माना है उसे झूठा सिद्ध करनेका यह अवसर हमें अनायास मिला है। इस अवसरको हाथसे निकल जाने देना आरोपको सच्चा सिद्ध करने के समान होगा। तब यदि हमपर अधिक कष्ट आयें और अंग्रेज हमपर अधिक आरोप लगायें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। यह तो हमारा ही दोष माना जायेगा। तब यह कहना कि अंग्रेजोंके जितने भी आरोप है उनमें तनिक भी सचाई नहीं है, और न उनमें बहसमें पड़ने लायक ही कोई तथ्य है, अपने आपको धोखा देनेके समान होगा। हम ब्रिटिश साम्राज्यमें गुलाम-जैसे हैं यह बात सच है, लेकिन अभीतक हमारी नीति यही रही है कि हम ब्रिटिश साम्राज्यमें रहते हुए ही इस गुलामीसे छूटनेका प्रयत्न करते रहें। हिन्दुस्तानके समस्त नेता और हम स्वयं यही प्रयत्न कर रहे हैं। यदि हम ब्रिटिश साम्राज्यके अंगके रूपमें ही स्वतन्त्रता प्राप्त करना और उन्नति करना चाहते हों तो हमें इस समय युद्धमें तन, मन और धनसे सहायता देकर ऐसा करनेका उक्त स्वर्ण अवसर मिला है। बोअरोंका पक्ष न्यायका पक्ष है यह तो काफी हदतक माना जा सकता है। किन्तु एक राज्यतन्त्रमें रहते हुए प्रत्येक प्रजाजन अपने स्वतन्त्र विचारोंपर अमल नहीं कर सकता। राज्याधिकारी जो-कुछ करते हैं वह सभी कार्रवाई प्रायः उचित नहीं होती। फिर भी जबतक प्रजाजन किसी शासनको स्वीकार करते हैं तबतक उनका स्पष्ट धर्म है कि वे सामान्यतः शासनके कार्योंके अनुकूल रहें और उन्हें पूरा करनेमें सहायता ।"

१. अन्ततः भारतीय समाजने युद्ध में जो सहायता दी उसके विस्तृत विवरण के लिए देखिए खण्ड ३ ।

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