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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैंने यह भी कहा कि, "यदि प्रजाका कोई वर्ग धार्मिक दृष्टिसे राज्यतन्त्रके किसी कार्यको अनीतिमय मानता हो तो उसे उस कार्यमें विघ्न डालने अथवा सहायता देनेसे पहले अपने जीवनको जोखिममें डालकर भी राज्यतन्त्रको उस अनीतिसे बचानेका पूरा प्रयत्न करना चाहिए। अभीतक तो हमने ऐसा कुछ किया नहीं है। ऐसा धर्म-संकट अभीतक हमारे सामने आया नहीं है। हममें से कोई ऐसा कहता या मानता भी नहीं है कि हम किसी ऐसे सार्वजनिक और सम्पूर्ण कारणको लेकर युद्धमें भाग लेना नहीं चाहते। इसलिए प्रजाके रूपमें हमारा सामान्य धर्म तो यही है कि जब यह युद्ध हो रहा है तब हम युद्धके गुण-दोषका विचार किये बिना उसमें यथाशक्ति सहायता दें। यदि अन्तमें, बोअर राज्योंकी जीत हुई - उनकी जीत नहीं होगी यह माननेका कोई भी कारण नहीं है - तो हम चूल्हेमें से निकल कर भाड़में गिरेंगे और बोअर हमसे मनमाना बैर निकालेंगे ऐसा कहना अथवा मानना वीर बोअरोंके प्रति और स्वयं अपने प्रति अन्याय करनेके समान है। यह तो केवल अपनी कायरताकी निशानी होगी। ऐसा खयाल भी करना वफादारीको बट्टा लगाना है। क्या कोई अंग्रेज एक क्षणके लिए भी यह सोच सकता है कि यदि अंग्रेज हार जायेंगे तो उनका अपना क्या होगा ? युद्ध-क्षेत्र में जानेवाला कोई भी मनुष्य, जबतक उसका मनुष्यत्व नष्ट न हो गया हो, ऐसा तर्क कर ही नहीं सकता।"

मैंने यह बात सन् १८९९ में कही थी और आज भी उसमें कोई फेरफार करना मुझे उचित नहीं लगता, क्योंकि मुझे उस समय ब्रिटिश साम्राज्यसे जो मोह था और मैंने ब्रिटिश साम्राज्यमें रहकर ही हिन्दुस्तानकी स्वतन्त्रता लेनेकी जो आशा बाँधी थी, मेरा वह मोह और वह आशा आज भी कायम होती तो मैं आज भी बिलकुल यही तर्क दक्षिण आफ्रिकामें और ऐसी स्थितियोंमें यहाँ भी प्रस्तुत करता। मैंने इस तर्कके विरुद्ध दक्षिण आफ्रिकामें बहुत-सी दलीलें सुनी हैं और उसके बाद इंग्लैंडमें भी सुनी हैं। फिर भी मुझे उसमें परिवर्तन करनेका कोई कारण दिखाई नहीं दिया है। मैं जानता हूँ कि मेरे आजकलके विचारोंका प्रस्तुत विषयसे कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु मैंने ऊपर जो अन्तर बताया है उसके दो प्रबल कारण हैं। एक कारण तो यह है कि व्यस्त पाठकोंसे इस पुस्तकको हाथमें लेनेपर मुझे यह आशा रखनेका कोई अधिकार नहीं है कि वे इसे ध्यानपूर्वक धीरजके साथ पढ़ेंगे। उन पाठकोंको मेरी वर्तमान प्रवृत्तियोंसे उक्त विचारोंका मेल बैठानेमें कठिनाई होगी। दूसरा कारण यह है कि इस विचार -श्रेणीमें भी सत्यका ही आग्रह है। जैसा हमारे हृदयमें हो वैसा ही व्यक्त करना और उसीके अनुसार व्यवहार करना यह धर्माचरणकी अन्तिम नहीं, बल्कि पहली शर्त है। इस नींवके बिना धर्मरूप भवनका निर्माण असम्भव है।

अब हम पिछले इतिहासपर आयें ।

मेरी बात बहुत से लोगोंको ठीक लगी। यह बात केवल मेरी ही थी, मैं पाठकोंको ऐसा आभास नहीं देना चाहता। बेशक मेरे यह सब कहनेके पहले भी बहुतसे हिन्दुस्तानी लड़ाईमें भाग लेनेके पक्षमें थे। किन्तु अब व्यावहारिक प्रश्न यह उठा कि युद्धके इस नक्कारखानेमें हिन्दुस्तानियोंकी यह तूती सुनेगा कौन? इसमें

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