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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

हिन्दुस्तानियोंकी गिनती ही क्या है ? हममें से किसीने भी कभी हथियारोंको तो हाथ लगाया नहीं था । युद्धमें बिना हथियारोंका काम करनेके लिए भी शिक्षण तो आवश्यक है ही। हममें से तो किसीको कदमसे-कदम मिलाकर चलना भी नहीं आता था। फिर सेनाके साथ लम्बी-लम्बी मंजिलें तय करना और अपना-अपना सामान उठाकर यात्रा करना यह सब हम कैसे कर सकेंगे? इसके अतिरिक्त गोरे हम सबको कुली मानेंगे, हमारा अपमान करेंगे और हमें तिरस्कारकी दृष्टिसे देखेंगे। यह हमसे कैसे सहन हो सकेगा ? यदि हम लड़ाईमें भाग लेनेकी माँग करें तो उस मांगको मनवायेंगे कैसे ? अन्तमें हम सब इस निश्चयपर पहुँचे कि हमें अपनी माँगके सुने जानेका प्रबल प्रयत्न करना चाहिए, काम स्वयं काम करना सिखा देगा और इच्छा होगी तो ईश्वर शक्ति देगा ही; मिला हुआ काम कैसे होगा इसकी चिन्ता हमें छोड़ देनी चाहिए; जो शिक्षण मिल सके वह लेना चाहिए और एक बार सेवाधर्म स्वीकार करनेका निश्चय कर लेनेपर मान-अपमानकी चिन्ता छोड़कर, यदि अपमान हो तो उसको सहन करके भी, सेवा करनी चाहिए।

हमें अपनी माँग स्वीकार करानेमें बेहद मुश्किलोंका सामना करना पड़ा। इसका इतिहास मनोरंजक है; किन्तु उसको यहाँ देनेकी गुंजाइश नहीं; इसलिए इतना ही कहे देता हूँ कि हममें से मुख्य-मुख्य लोगोंने घायलों और रोगियोंकी सेवा-शुश्रूषा करनेका शिक्षण लिया। हमने अपनी शारीरिक स्थितिके सम्बन्धमें डाक्टरी प्रमाणपत्र प्राप्त किये और युद्धमें भाग लेनेकी माँग सरकारको भेज दी। हमारे इस पत्रका और अपनी मांगको स्वीकार करानेके हमारे आग्रहका प्रभाव बहुत अच्छा हुआ। सरकारने इस पत्रके उत्तरमें कृतज्ञता प्रकट की; किन्तु उस समय उसने हमारी वह माँग स्वीकार करनेमें अपनी असमर्थता प्रकट की। इस बीच बोअरोंका पलड़ा भारी होता चला गया। वे एक तेज बाढ़की तरह आगे बढ़े और ऐसा भय लगा कि वे नेटालकी राजधानी तक पहुँच जायेंगे। लोग बड़ी संख्या में घायल हुए। हमारा प्रयत्न तो जारी था ही। अन्तमें घायलोंको उठानेवाली और उनकी सेवा-शुश्रूषा करनेवाली टुकड़ीके रूपमें हमारी सेवाएँ स्वीकार हुईं। हमने तो यह भी लिख दिया था कि हमें अस्पतालोंमें पाखाने साफ करनेका या झाडू देनेका काम करना भी स्वीकार है। इसलिए हमने सरकारके सेवादलके रूपमें हमारी टुकड़ी बनानेके विचारको स्वागत योग्य समझा, इसमें क्या आश्चर्य है ? हमने जो प्रस्ताव रखा था, वह स्वतन्त्र और गिरमिट-मुक्त हिन्दुस्तानियोंके सम्बन्धमें था। किन्तु हमने यह सलाह भी दी कि इस दलमें गिरमिटियोंको लेना भी वांछनीय है। उस समय तो सरकारको जितने लोग मिलें उतनोंकी जरूरत थी; इसीलिए कोठियोंमें भी निमन्त्रण भेजे गये । परिणामस्वरूप लगभग ग्यारह सौ हिन्दुस्ता- नियोंकी खासी बड़ी टुकड़ी डर्बन से चली। उसकी विदाईके समय श्री एस्कम्बने, जिनके नामसे पाठक परिचित है और जो नेटालके गोरे स्वयंसेवकोंके मुख्य नायक थे, हमें धन्यवाद और आशीर्वाद दिया।

१. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ १२२-३ ।

२. देखिए खण्ड ३, ५४ १३८-३९ ।

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