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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अंग्रेजी अखबारोंको यह सब चमत्कार जैसा ही लगा । हिन्दुस्तानी कौम लड़ाईमें कुछ भी भाग लेगी ऐसी कोई आशा नहीं की गई थी। इस बातको लेकर एक प्रमुख स्थानीय अखबारमें एक अंग्रेजी कविता भी छपी जिसकी टेकका आशय था "आखिरकार हम सब एक ही राज्यकी प्रजा हैं।"

इस टुकड़ीमें लगभग तीन-चार सौके बीच गिरमिट-मुक्त हिन्दुस्तानी रहे होंगे । ये लोग स्वतन्त्र हिन्दुस्तानियोंके प्रयत्नसे इकट्ठे हुए थे। इनमें से सैंतीस आदमी मुखिया माने जाते थे, क्योंकि सरकारको उन लोगोंके हस्ताक्षरोंसे ही प्रस्तावपत्र भेजा गया था और इन्होंने लोगोंको इकट्ठा किया था। इन मुखियोंमें बैरिस्टर, मुंशी और मुनीम आदि थे। बाकीके लोग कारीगर - राज, मजूर, बढ़ई आदि थे। उनमें हिन्दू-मुसलमान, मद्रासी और उत्तर भारतीय सभी वर्गोंके लोग शामिल थे। कहा जा सकता है कि व्यापारी वर्गका कोई भी आदमी उनमें न था। किन्तु व्यापारियोंने चन्देके रूपमें बहुत धन दिया था।

टुकड़ीको जो फौजी-भत्ता दिया जाता था उसकी जरूरतें उससे ज्यादा होती थीं। इन जरूरतोंके पूरे किये जा सकनेपर टुकड़ीके लोगोंकी दिक्कतें कुछ कम हो जायेंगी, इस विचारसे ऐसी राहत देनेवाली चीजें जुटानेका जिम्मा व्यापारी वर्गने अपने ऊपर लिया और उसके साथ ही हमें जिन घायलोंकी सार-संभाल करनी पड़ती थी उनको भी मिठाइयाँ और बीड़ी-सिगरेट आदि जुटानेके रूपमें खासी सहायता दी। इसके अतिरिक्त हमारा पड़ाव जिन-जिन शहरोंके पास होता था उनके व्यापारी भी ऐसी सहायता देनेमें पूरा भाग लेते थे।

इस टुकड़ीमें जो गिरमिटिया आये थे, कोठियोंकी ओरसे उनके अंग्रेज मुखिया भेजे गये थे, किन्तु काम तो सबका एक ही था और सभी रहते भी एक ही जगह थे । गिरमिटिये हम लोगोंको टुकड़ी में देखकर बहुत प्रसन्न हुए और पूरी टुकड़ीकी व्यवस्था भी सहज ही हमारे हाथमें आ गई । इस कारण यह समूची टुकड़ी हिन्दुस्तानी जातिकी टुकड़ी ही मानी गई और उसके कार्यका श्रेय हिन्दुस्तानी जातिको ही मिला । यों, गिरमिटियोंकी भरतीका श्रेय हिन्दुस्तानी कौम नहीं ले सकती थी, उसका श्रेय तो कोठीदारोंको ही जाता है। किन्तु यह बात ठीक है कि इस टुकड़ीके बन जानेपर उसकी सुव्यवस्थाका श्रेय तो स्वतन्त्र हिन्दुस्तानी वर्ग अर्थात् हिन्दुस्तानी समाजको ही था और इस बातको जनरल बुलरने अपने खरीतोंमें स्वीकार किया है ।

रोगियोंकी परिचर्याकी शिक्षा देनेवाले डा० बूथ भी चिकित्सा-व्यवस्थापकके रूपमें हमारी टुकड़ीके साथ थे। ये एक बड़े सज्जन पादरी थे और हिन्दुस्तानी ईसाइयोंमें काम करते हुए भी सबसे मिलते-जुलते थे। मैंने ऊपर सैंतीस मुखियोंका जो उल्लेख किया उसमें से ज्यादातर इन्हीं सज्जन पादरीके शिष्य थे। शुश्रूषाके लिए जैसी टुकड़ी हिन्दुस्तानियोंकी बनाई गई थी वैसी ही टुकड़ी यूरोपीयोंकी भी बनाई गई थी और दोनोंको काम भी एक ही जगह करना होता था।

हमारे सहयोगके प्रस्तावमें कोई शर्त नहीं रखी गई थी। किन्तु उसकी स्वीकृति- का जो पत्र आया उसमें बताया गया था कि हमें तोप या बन्दूककी मारके भीतर

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