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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

बुलाकर प्रभुसिंहको वह भेंट दी। इस दृष्टान्तसे हम दो निष्कर्ष निकाल सकते हैं: एक तो हम किसी भी आदमीको छोटा या तुच्छ न मानें और दूसरे भीरुसे- भीरु आदमी भी अवसर आनेपर वीर बन सकता है।

अध्याय १०

युद्धके बाद

लड़ाई मुख्य रूपसे सन् १९०० तक लड़ी जा चुकी थी। लेडीस्मिथ, किम्बलें और मेफिकिंग तबतक वापस छीने जा चुके थे और जनरल कोंजेने हार मान ली थी। ब्रिटिश उपनिवेशोंका जो भाग बोअरोंके कब्जेमें चला गया था ब्रिटिश साम्राज्यके अन्तर्गत आ गया। लॉर्ड किचनरका ट्रान्सवाल और ऑरेंज फ्री स्टेटपर भी अधिकार हो गया था तथा अब केवल छापामार लड़ाई चल रही थी ।

मैंने सोचा कि अब दक्षिण आफ्रिकामें मेरा काम समाप्त हो गया। मुझे एक महीने की जगह वहाँ छः साल हो गये। फिर हमारे कार्यकी रूपरेखा भी बन हो चुकी थी। किन्तु समाजकी सहर्ष स्वीकृतिके बिना मैं वहाँसे नहीं आ सकता था । मैंने अपने साथियोंको बताया, "मैं अब हिन्दुस्तान जाकर सेवा करना चाहता हूँ । स्वार्थकी जगह सेवा-धर्मका पाठ में दक्षिण आफ्रिकामे पढ़ चुका हूँ और मुझे उसकी लगन लगी हुई थी। मनसुखलाल नाजर दक्षिण आफ्रिकाम है ही और खान' भी हैं। दक्षिण आफ्रिकासे गये हुए कई हिन्दुस्तानी युवक बैरिस्टर बनकर वापस आ चुके हैं। इसलिए मेरा स्वदेश लौटना किसी भी प्रकार अनुचित नहीं माना जा सकता। सब दलीलोंको ठीक माननेपर भी मुझे इस एक तर्कपर ही छुट्टी दी गई कि यदि दक्षिण आफ्रिकामें कोई आकस्मिक बाधा उत्पन्न हुई और मेरी जरूरत जान पड़ी तो समाज मुझे जब चाहे तब वापस आनेको लिखेगा और तब मुझे तत्काल वापस आना होगा। उस हालतमें मेरे आने-जाने और यहाँ रहनेका खर्च समाज उठायेगा। मैंने यह शर्त स्वीकार की और हिन्दुस्तान लौट आया।

मैंने स्वर्गीय गोखलेकी सलाहसे और मार्गदर्शन में मुख्यतः सार्वजनिक कार्य करने और सामान्यतः आजीविका कमानेके हेतुसे बम्बईमें बैरिस्टरी करनेका निश्चय किया और उसके लिए जगहका प्रबन्ध किया। मेरी वकालत भी कुछ-कुछ चलने लगी। दक्षिण आफिकासे मेरा बहुत सम्बन्ध होनेसे मेरा खर्च दक्षिण आफ्रिकाके मुवक्किलोंसे ही आसानीके साथ निकल आता था। किन्तु स्थिर होकर बैठना मेरे भाग्यमें बदा नहीं था। मुझे बम्बईमें शायद तीन या चार महीने ही हुए होंगे कि दक्षिण आफ्रिकासे तार मिला, " स्थिति गम्भीर, श्री चेम्बरलेन कुछ दिनोंमें ही आ रहे हैं; आपका आना आवश्यक' ।"

१. एक भारतीय बैरिस्टर; देखिए खण्ड ३।

२. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ २८३-५।

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