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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैंने अपना बम्बईका दफ्तर और घरद्वार समेटा और पहले ही जहाजसे रवाना हो गया । यह १९०२के आखिरी दिनोंकी बात है । सन् १९०१ के अन्तमें हिन्दुस्तान लौटकर सन् १९०२ के मार्च-अप्रैलमें बम्बई में मैंने अपना दफ्तर खोला था । तारसे ज्यादा तो कुछ समझ नहीं सका, इतना ही अनुमान लगाया कि ट्रान्सवालमें ही कोई संकट आया होगा । मैं चार या छ: महीनोंमें वापस लौट सकूंगा, यह समझकर बिना परिवारको साथ लिये ही रवाना हो गया। डर्बन पहुँचकर सारी स्थिति सुनकर मैं स्तब्ध हो गया । हममें- से बहुतोंका खयाल था कि युद्धके बाद हिन्दुस्तानियोंकी स्थिति दक्षिण आफ्रिका भरमें अवश्य ही सुधरेगी और ट्रान्सवाल तथा ऑरेंज फ्री स्टेटमें तो कोई कठिनाई आ ही नहीं सकती। क्योंकि लॉर्ड लैंसडाउन, लॉर्ड सेलबोर्न और अन्य बड़े अधिकारियों- ने हिन्दुस्तानियोंकी विषम स्थितिको भी युद्धका एक कारण बताया था। प्रिटोरिया- का ब्रिटिश एजेंट भी मेरे सामने कई बार कह चुका था कि यदि ट्रान्सवाल ब्रिटिश उपनिवेश बन जायेगा तो हिन्दुस्तानियोंके सारे कष्ट मिट जायेंगे । गोरोंने भी ऐसा ही माना था कि राज्य सत्ता बदलनेपर ट्रान्सवालका पुराना कानून हिन्दुस्तानियों पर लागू नहीं किया जा सकेगा। यह बात यहाँतक सर्वमान्य हो गई थी कि जो नीलाम अधिकारी जमीन नीलाम करते वक्त लड़ाईसे पहले हिन्दुस्तानियोंकी बोली मंजूर नहीं करते थे, वे अब उनकी बोली खुल्लम-खुल्ला मंजूर करने लगे थे। बहुतसे हिन्दुस्तानियोंने इस तरह नीलाममें जमीनें खरीदीं भी। किन्तु जब वे तहसीलमें इन जमीनोंके दस्तावेजोंका पंजीयन कराने गये तब माल अधिकारीने १८८५ के कानूनके अनुसार आपत्ति उठाई और पंजीयन करनेसे इनकार कर दिया। डर्बनमें जहाजसे उतरते ही मैंने इतनी बात तो सुन ली थी। नेताओंने बताया, " आपको ट्रान्सवाल जाना है। पहले तो श्री चेम्बरलेन यहीं आयेंगे । उनको यहाँकी स्थिति भी बतानी जरूरी है । यहाँका काम निबटाकर जैसे ही श्री चेम्बरलेन ट्रान्सवाल जायें, आप भी ट्रान्सवाल रवाना हो जायें ।"

नेटालमें भी श्री चेम्बरलेनसे एक शिष्ट मण्डल मिला। उन्होंने सब बातें सौजन्य- पूर्वक सुनीं और उनके सम्बन्धमें नेटाल मन्त्रिमण्डलसे बातचीत करनेका वचन दिया । मुझे स्वयं ऐसी आशा नहीं थी कि नेटालमें लड़ाईसे पहले बनाये गये कानूनोंमें कोई फेरफार किया जायेगा। इन कानूनोंकी चर्चा पिछले प्रकरणोंमें की जा चुकी है।

पाठक यह बात जानते ही हैं कि लड़ाईसे पहले ट्रान्सवालमें कोई भी हिन्दुस्तानी चाहे जब जा सकता था । किन्तु मैंने देखा कि अब बात ऐसी नहीं रही है । फिर उस समय जो भी प्रतिबन्ध था वह गोरों और हिन्दुस्तानियों, दोनोंपर लागू होता था । इस समयतक स्थिति यह थी कि यदि ट्रान्सवालमें बहुतसे लोग आ जायें तो उनके लिए अन्न और वस्त्र पूरा नहीं पड़ सकता था, क्योंकि लड़ाईके कारण दुकानें अभीतक बन्द थीं और उनका प्रायः सबका सब माल बोअर सरकारने जब्त कर लिया था; इस- लिए मेरा खयाल यह था कि यदि यह प्रतिबन्ध कुछ समयके लिए ही हो तो उसमें भयका कोई कारण नहीं है । किन्तु गोरों और हिन्दुस्तानियोंके लिए ट्रान्सवाल जानेके परवाने

१. २७ दिसम्बर १९०२ को; देखिए खण्ड ३, पृष्ठ २८६-२९० ।

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