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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ही, इसे श्री चेम्बरलेनके सामने पेश करना बहुत जरूरी है।' वहाँ हिन्दुस्तानी वैरि- स्टर जॉर्ज गॉडफ्रे मौजूद थे। मैंने उनको अर्जी पढ़कर सुनानेके लिए तैयार किया। शिष्टमण्डल श्री चेम्बरलेनसे मिलने गया। मेरे सम्बन्धमें भी बात उठी । श्री चेम्बरलेन- ने कहा, "मैं श्री गांधीसे डर्बनमें मिल चुका हूँ। इसलिए मैंने यह सोचकर उनसे मिलने- से इनकार किया कि मैं यहाँका हाल यहींके लोगोंके मुँहसे सुनूं तो ज्यादा अच्छा होगा।" मेरी दृष्टिसे यह उत्तर जलती आगमें आहुति जैसा था। श्री चेम्बरलेनने वही बात कही जो उसे एशियाई विभागने पढ़ाई थी। एशियाई विभागने, जैसा वातावरण हिन्दुस्तान में है वैसा ही वातावरण ट्रान्सवालमें पैदा कर दिया। हम सभी जानते हैं कि चम्पारनके अंग्रेज अधिकारी बम्बईवासियोंको विदेशी मानते हैं। इस नियमके अनुसार एशियाई विभागने श्री चेम्बरलेनको यह समझाया कि मैं डर्बनमें रहनेवाला ट्रान्सवालकी बात क्या जान सकता हूँ। श्री चेम्बरलेन क्या जानते थे कि मैं ट्रान्सवालमें रह चुका हूँ और में ट्रान्सवालमें न रहा होऊँ तो भी ट्रान्सवालकी स्थितिसे भलीभांति परिचित हूँ। प्रश्न एक ही था - - ट्रान्सवालकी स्थितिको सबसे अधिक कौन जानता है ? हिन्दुस्तानी समाजने मुझे खासतौरसे हिन्दुस्तानसे बुलाकर इस प्रश्नका उत्तर दे दिया था; किन्तु शासकोंके सम्मुख न्यायकी बात नहीं चलती, यह कोई नया अनुभव नहीं है । उस समय श्री चेम्बरलेनपर स्थानीय अंग्रेज अधिकारियोंका प्रभाव इतना अधिक था कि वे न्याय करेंगे ऐसी आशा बिलकुल नहीं थी अथवा थी भी तो बहुत कम । किन्तु न्याय प्राप्त करनेका कोई भी उचित कदम भूलसे अथवा आत्मसम्मानवश उठाये बिना न रह जाये, इसी कारण शिष्टमण्डल उनसे मिला था ।

किन्तु मेरे सम्मुख १८९४ में जैसी विषम स्थिति थी उससे भी अधिक विषम स्थिति आ गई। एक दृष्टिसे विचार करनेपर मुझे ऐसा लगा कि मैं श्री चेम्बरलेनकी पीठ फिरते ही हिन्दुस्तान लौट सकता हूँ। दूसरी दृष्टिसे मुझे यह स्पष्ट दिखाई दिया कि यदि में कौमको भयंकर स्थितिमें देखते हुए भी हिन्दुस्तानमें सेवा करनेके खयालसे लोट जाऊँ तो मुझे सेवा-धर्मका जो रूप दिखाई दिया है वह कलंकित हो जायेगा। मैंने सोचा कि मेरा पूरा जीवन भी दक्षिण आफ्रिकामें क्यों न निकल जाये फिर भी जबतक दक्षिण आफ्रिकी हिन्दुस्तानी समाजपर घिरी हुई घनी घटाएँ छिन्न-भिन्न न हो जायें अथवा रोकनेका पूरा प्रयत्न करनेपर भी समाजपर बरस न पड़ें और सबको नष्ट- भ्रष्ट न कर दें तबतक मुझे ट्रान्सवालमें ही रहना चाहिए। मैंने नेताओंके सम्मुख अपने ये विचार व्यक्त किये और १८९४ की तरह इस समय भी वकालत करके अपना 'निर्वाह करते हुए वहाँ रहनेका निश्चय बताया। समाज तो चाहता ही यह था ।

मैंने तुरन्त ट्रान्सवालमें वकालतकी दरख्वास्त दी। मुझे थोड़ा भय था कि वहाँका वकील-मण्डल भी मेरी दरख्वास्तका विरोध करेगा, किन्तु मेरा यह भय निराधार निकला । मुझे सर्वोच्च न्यायालयकी वकालतकी सनद मिल गई और मैंने जोहानिसबर्गमें दफ्तर खोला । ट्रान्सवालमें हिन्दुस्तानियोंकी सबसे बड़ी आबादी जोहानिसबर्गमें ही थी । इसलिए आजीविका और सार्वजनिक कार्य दोनों दृष्टियोंसे मेरे लिए जोहानिसबर्ग ही

१. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ २९२-२९६ ।

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