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इतिहास ६७
दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका

अनुकूल केन्द्र था। मुझे रोज-रोज एशियाई कार्यालयकी गन्दगीका कड़वा अनुभव हो रहा था और वहांके हिन्दुस्तानी संघकी पूरी शक्ति इसी गन्दगीको दूर करनेमें लग रही थी। १८८५ के कानूनको रद कराने की बात तो एक दूरका लक्ष्य हो गई थी। हमारे सम्मुख तात्कालिक कार्य तो एशियाई कार्यालय रूपी भयंकर बाढ़से अपना बचाव करना ही था। हमारे शिष्टमण्डल लॉर्ड मिलनरसे,' लॉर्ड सेल्बोर्नसे, जो उस समय वहाँ आये थे, सर आर्थर लालीसे, जो ट्रान्सवालके लेफ्टिनेन्ट गवर्नर थे और बादमें मद्रासके गवर्नर बनाये गये थे और इनसे नीचेके अधिकारियोंसे मिले। मैं उनसे बहुत बार अकेला भी मिलता। इससे थोड़ी बहुत राहत मिल जाती; किन्तु यह तो चीथड़ोंपर पैबन्द लगाने-जैसा था । लुटेरे हमारा सब घन लूट लें और हमारे गिड़गिड़ानेसे उसमें कुछ हमें वापस दे दें और हम उससे सन्तोष मानें, इस राहतसे भी हमें ऐसा ही कुछ सन्तोष मिलता था। मैंने ऊपर जिन अधिकारियोंके हटाये जानेकी चर्चा की है उनपर इस आन्दोलनके कारण ही मुकदमे चलाये गये थे। मैं हिन्दुस्तानियोंके प्रवेशपर प्रतिबन्ध लगाये जानेके जिस भयका उल्लेख कर चुका हूँ वह सच्चा निकला। गोरोंके लिए परवाना लेनेका नियम हटा दिया गया, किन्तु हिन्दुस्तानियोंके लिए वह अनिवार्य ही बना रहा। ट्रान्सवालकी पिछली सरकारने जितने कड़े कानून बनाये थे उनपर इतनी सख्ती से अमल नहीं किया जाता था। इसका कारण उदारता या भलमनसाहत नहीं, बल्कि शासन-विभागकी उदासीनता थी । यदि इस विभागके अधिकारी अच्छे हों तो उनको भलमनसी दिखानेका जितना अवसर पिछली सरकारकी अधीनतामें मिलता था उतना अब अंग्रेज सरकारकी अधीनतामें नहीं था। ब्रिटिश तन्त्र पुराना होनेके कारण दृढ़ और सुगठित बन गया है और उसमें अधिकारियोंको यन्त्रकी तरह काम करना पड़ता है, क्योंकि उनपर एकके ऊपर एक चढ़ते-उतरते अंकुश लगे होते हैं। इसलिए ब्रिटिश संविधानमें राज्य-पद्धति उदार हो तो प्रजाको उसका अधिकतम लाभ मिल सकता है और यदि यह पद्धति अन्यायपूर्ण अथवा अनुदार हो तो प्रजा इस नियन्त्रित सत्तामें उनका दबाव भी अधिकतम अनुभव करती है। ट्रान्सवालकी पिछली शासन-पद्धति-जैसे तन्त्रमें इससे उल्टी स्थिति होती है। उसमें उदार कानूनका लाभ मिलना न मिलना बहुत-कुछ उस विभागके अधिकारीपर निर्भर होता है। इस नीतिके अनुसार ट्रान्सवालमें जब ब्रिटिश सत्ता कायम हुई तब हिन्दुस्तानियोंसे सम्व- न्धित सब कानूनोंपर और भी अधिक कड़ाईसे अमल होने लगा। उनमें जहाँ-जहाँ बचावकी कोई गुंजाइश थी वह अब बिल्कुल खत्म हो गई। हम पहले देख ही चुके हैं कि एशियाई विभागकी नीति कड़ी थी, इसलिए पुराने कानूनको रद करानेकी बात तो एक ओर रही, उसकी सख्तियोंको अमलमें नरम कैसे कराया जाये, हिन्दु- स्तानियोंको इसी दृष्टिसे उद्योग करना शेष रह गया ।

हमें आगे पीछे एक सैद्धान्तिक चर्चा तो करनी ही पड़ेगी। कदाचित् भावी स्थिति और हिन्दुस्तानियोंके दृष्टिकोणको समझनेमें उसे यहीं कर लेना सहायक होगा। ट्रान्सवाल और ऑरेंज फ्री स्टेटमें ब्रिटिश ध्वजाके फहराते ही लॉर्ड मिलनरने एक

देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ३२४-३३१।

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