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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

हो जाती है। फिर भी चूँकि उसमें से रंगभेदका दोष दूर कर दिया गया था, इसलिए वह सार्वजनिक हो गया। इस कानूनकी नई धाराका अर्थ इस प्रकार है: "जिन जातियों- को अपने देशमें संसदीय मताधिकार अर्थात् ब्रिटिश लोक सभाके सदस्योंके चुनावके ढंगका मताधिकार प्राप्त न हो उन जातियोंके लोगोंको नेटालमें मताधिकार नहीं दिया जा सकता।" इसमें कहीं भी हिन्दुस्तानियों अथवा एशियाइयोंका नाम नहीं आता । हिन्दुस्तानमें इंग्लैंडके ढंगका मताधिकार है या नहीं, इस सम्बन्धमें विधि- शास्त्रियोंके मत भिन्न-भिन्न हैं। किन्तु दलीलके तौरपर मान लेते हैं कि उस समय अर्थात् सन् १८९४ में हिन्दुस्तानमें वैसा मताधिकार नहीं था अथवा वैसा मताधिकार यहाँ आज भी नहीं है। फिर भी यदि नेटालका मतदाताओंके नाम दर्ज करनेवाला अघि- कारी मतदाता सूचीमें हिन्दुस्तानियोंका नाम दर्ज करे तो कोई यकायक यह नहीं कह सकता कि उसका यह काम गैरकानूनी है। कानूनमें सामान्य अर्थ सदा लोगोंके अधिकारोंके पक्षमें किया जाता है। इसलिए जबतक उस समयकी सरकार उसका विरोध न करना चाहे तबतक उक्त अधिकारी कानूनके मौजूद रहते हुए भी हिन्दु- स्तानियों और अन्य एशियाइयोंके नाम मतदाता सूचीमें दर्ज कर सकता है। अब मान लें कि कुछ समय बीतनेपर नेटालमें हिन्दुस्तानियोंके प्रति घृणाभाव कम हो जाता है और सरकार हिन्दुस्तानियोंका विरोध करना नहीं चाहती तो वह कानूनमें कोई परिवर्तन किये बिना हिन्दुस्तानियोंके नाम मतदाता सूचीमें दर्ज कर सकती है। सार्व- जनिक कानूनमें यह विशेषता होती है। मैं दक्षिण आफ्रिकाके जिन कानूनोंका उल्लेख पिछले प्रकरणोंमें कर चुका हूँ उनमें से ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं । इसलिए दूरदर्शिताकी राजनीति यही मानी जा सकती है कि एकदेशीय कानून कमसे- कम बनाये जायें और यदि बिल्कुल न बनाये जायें तो सबसे अच्छा । यदि कोई कानून एक बार बन जाता है तो फिर उसे बदलनेमें अनेक बाधाएँ आती हैं। लोकमत बहुत प्रशिक्षित करनेपर ही बने हुए कानून रद किये जा सकते हैं। जिस प्रजातन्त्रमें कानून सदा बदलते या रद होते ही रहते हैं वह प्रजातन्त्र सुव्यवस्थित नहीं माना जा सकता ।

अब हम ट्रान्सवालमें बनाये गये एशियाई-विरोधी कानूनोंमें व्याप्त विषको आसानीसे समझ सकते हैं। ये सभी कानून एकदेशीय हैं। एशियाई मतदाता नहीं बन सकते और सरकार द्वारा निर्धारित क्षेत्रोंके अतिरिक्त अन्यत्र जमीनें नहीं खरीद सकते । ये कानून जबतक रद नहीं किये जाते तबतक अधिकारी हिन्दुस्तानियोंकी हित-सिद्धि कदापि नहीं कर सकते । ये कानून सार्वजनिक नहीं थे, इसीलिए तो लॉर्ड मिलनरकी नियुक्त की हुई समिति उनको छाँटकर अलग कर सकी। किन्तु यदि सार्वजनिक होते तो एशियाइयोंका नाम न होनेपर भी जिन कानूनोंका प्रभाव एशियाइयोंपर ही पड़ता है ये सभी कानून दूसरे कानूनोंके साथ ही रद हो जाते। तब अधिकारी ऐसा कभी न कह सकते, 'हम क्या कर सकते हैं, हम तो लाचार हैं। जबतक नई विधानसभा इन कानूनोंको रद नहीं कर देती तबतक हमारे लिए उनपर अमल करानेके सिवा दूसरा कोई चारा ही नहीं है । "


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