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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जब ये कानून एशियाई विभागके हाथमें आये तब उसने उनको पूरी तरह अमलमें लाना शुरू किया। किन्तु होना यह था कि यदि मन्त्रिमण्डल इन कानूनोंको अमलमें लानेके योग्य मानता है तो उसे इनमें जो दोष छूट गये थे या छोड़ दिये गये थे उन्हें दूर करनेके लिए अधिक सत्ता भी प्राप्त करनी चाहिए थी । यह सीधी- सादी दलील है कि यदि कानून बुरे हैं तो उन्हें रद किया जाये और यदि अच्छे हैं तो उनमें जो भी दोष रह गये हों वे दूर किये जायें। मन्त्रिमण्डलने इन कानूनोंको अमलमें लानेकी नीति तो स्वीकार कर ली थी। हिन्दुस्तानियोंने बोअर युद्धमें अंग्रे- जोंके साथ कन्धेसे-कन्धा भिड़ाकर और अपनी जानको जोखिममें डालकर भाग लिया था। मगर यह बात तो अब तीन-चार वर्ष पुरानी हो गई थी। ट्रान्सवालके ब्रिटिश एजेंटने हिन्दुस्तानी लोगोंके अधिकारोंके लिए जद्दोजहद की थी, यह बात पुराने प्रजा- तन्त्रके साथ चली गई। युद्धका एक कारण हिन्दुस्तानियोंके कष्ट भी हैं, यह बात अधिकारियोंने बिना दीर्घ दृष्टिसे सोचे और बिना स्थानीय परिस्थितियोंको जाने कह दी थी। अब अधिकारियोंने अनुभवसे अपनी यह राय बनाई कि बोअरोंके शासन- कालमें हिन्दुस्तानियोंके विरुद्ध बनाये गये कानून पर्याप्त कठोर और व्यवस्थित नहीं हैं। यदि हिन्दुस्तानी जब चाहें तब ट्रान्सवालमें आ जायें और जैसे चाहें वैसे और जहाँ चाहें वहीं व्यापार करें तो अंग्रेज व्यापारियोंको बहुत नुकसान पहुँचेगा। इन और ऐसे ही दूसरे तोंने गोरों और उनके प्रतिनिधि मन्त्रियोंको अभिभूत कर लिया। सभी गोरे कमसे-कम समयमें अधिकसे-अधिक धन इकट्ठा कर लेना चाहते थे । हिन्दुस्तानी उसमें से थोड़ा-बहुत भी भाग बँटा लें, यह बात उन्हें पसन्द कैसे आ सकती थी ? इस लोभमें तत्वज्ञानके ढोंगका मिश्रण भी किया गया। दक्षिण आफ्रिकाके बुद्धिमान लोग स्वार्थ-भरे व्यापारिक तर्कसे ही सन्तोष नहीं कर सकते थे। मनुष्यकी बुद्धि अन्याय करनेके लिए भी सदा उचित जँचनेवाले तर्क खोजती है। दक्षिण आफ्रिकाके इन लोगोंने भी अपनी बुद्धिसे ऐसे ही तर्क खोज लिये । इस प्रकारके तर्क जनरल स्मट्स और उन-जैसे अन्य लोगोंने प्रस्तुत किये :

'दक्षिण आफ्रिका पाश्चात्य सभ्यताका प्रतिनिधि है। हिन्दुस्तान प्राच्य सभ्यता का केन्द्र-स्थल है। इस युगके तत्वज्ञानी यह बात स्वीकार नहीं करते कि इन दोनों सभ्य- ताओंका समन्वय सम्भव है। यदि इन दोनों सभ्यताओंका प्रतिनिधित्व करनेवाली जातियाँ छोटे-छोटे समुदायोंमें ही इकट्ठी हों तो भी उसका परिणाम विस्फोटकारी ही होगा। पश्चिम सादगीका विरोधी है। पूर्वके लोग सादगीको मुख्य मानते हैं । दोनोंके दृष्टिकोणोंमें मेल कैसे बैठ सकता है ? इन दोनों सभ्यताओंमें से कौन-सी सभ्यता अधिक अच्छी है यह देखना राजनीतिज्ञों अथवा व्यावहारिक लोगोंका काम नहीं । पाश्चात्य सभ्यता अच्छी हो या बुरी, किन्तु पश्चिमके लोग तो उसीको अपनाये रहना चाहते हैं। पश्चिमके लोगोंने इस सभ्यताकी रक्षाके लिए अथक प्रयत्न किये हैं, खूनकी नदियाँ बहाई हैं और अन्य अनेक प्रकारके कष्ट सहे हैं। इसलिए पश्चिमके लोग अब किसी दूसरे मार्गपर जा ही नहीं सकते। इस विचारके अनुसार देखें तो हिन्दुस्तानियों और गोरोंका प्रश्न न तो व्यापारिक द्वेषका है और न वर्णद्वेषका; बल्कि वह केवल

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