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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

अपनी सभ्यताकी रक्षा अर्थात् आत्मरक्षाके उच्चतम अधिकारका प्रयोग करने और उसके अन्तर्गत कर्त्तव्यका पालन करनेका है। लोगोंको भड़कानेके लिए हिन्दुस्तानियोंके दोष निकालना वक्ताओंको भले ही अच्छा लगता हो, किन्तु राजनैतिक दृष्टिसे विचार करनेवाले लोग तो यही मानते और कहते हैं कि दक्षिण आफ्रिकामें हिन्दुस्तानियों के गुण ही दोष बने हुए हैं। वे सरलता, अनवरत अध्यवसाय, मितव्ययिता, परलोक- परायणता और सहनशीलता जैसे गुणोंके कारण ही दक्षिण आफ्रिकामें अप्रिय हो गये हैं । पश्चिमके लोग साहसी, अधीर, अपनी भौतिक आवश्यकताओंको बढ़ाने और पूरा करनेमें व्यस्त, खाने-पीने के शौकीन, शरीर-श्रमको बचानके लिए व्यग्र और खर्चीले स्वभाव- के हैं । इसलिए उन्हें भय रहता है कि यदि पूर्वकी सभ्यताके हजारों प्रतिनिधि दक्षिण आफ्रिकामें बस जायेंगे तो पश्चिमके लोगोंको उनसे हार ही माननी पड़ेगी । पश्चिमकी दक्षिण आफ्रिकावासी जातियाँ आत्मघात करनेके लिए तैयार नहीं हो सकतीं, अतः उनके पक्ष-पोषक नेता उन्हें इस प्रकारकी जोखिममें कभी नहीं पड़ने देंगे। "

मुझे लगता है कि ये तर्क अच्छेसे अच्छे और चरित्रवान गोरोंने जिस रूपमें दिये हैं मैंने उन्हें यहाँ निष्पक्ष भावसे वैसे ही प्रस्तुत किया है । मैं ऊपर इन तर्कोंको तत्वज्ञानका ढोंग कह चुका हूँ; किन्तु मेरे इस कथनका अभिप्राय यह नहीं है कि इन तर्कोंमें कोई तथ्य ही नहीं है । व्यावहारिक दृष्टिसे अथवा तात्कालिक स्वार्थकी दृष्टिसे तो इनमें बहुत-कुछ तथ्य हैं । किन्तु तात्त्विक दृष्टिसे तो ये ढोंग रूप ही हैं । मुझे अपनी अल्पमतिसे ऐसा प्रतीत होता है कि इन तर्कोंको किसी भी तटस्थ मनु- ष्यकी बुद्धि स्वीकार नहीं करेगी। कोई भी सुधारक अपनी सभ्यताको ऐसी लाचारी- की हालत में नहीं रखेगा जैसी लाचारीकी हालत में उक्त तर्क करनेवालोंने अपनी सभ्य- ताको रखा है। मैं नहीं जानता कि किसी भी प्राच्य तत्वज्ञानीको ऐसा भय है कि यदि प्राच्य जातियाँ पाश्चात्य जातियोंके अबाध सम्पर्क में आयेंगी तो प्राच्य सभ्यता पाश्चात्य सभ्यताके प्रवाह में बालूकी तरह बह जायेगी । में जहाँतक प्राच्य तत्वज्ञानको समझा हूँ वहाँतक मुझे तो ऐसा लगता है कि प्राच्य सभ्यताको पाश्चात्य सभ्यतासे अबाध सम्पर्क रखने में कोई भय नहीं है; इतना ही नहीं, वह इस प्रकारके सम्पर्कका स्वागत करती है । यदि पूर्वमें बात इसके विपरीत भी दिखाई दे तो इससे मेरे बताये सिद्धान्तपर कोई आँच नहीं आती । इस सिद्धान्तके समर्थनमें बहुत उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी पाश्चात्य तत्वज्ञानियोंका तो कहना है कि पशुबलको सर्वाधिक शक्तिमान मानना पाश्चात्य सभ्यताका तो मूल सिद्धान्त ही है; इसीलिए इस सभ्य- ताके पक्ष-पोषक पशुबलकी रक्षाके लिए अपने समयका अधिकसे-अधिक भाग देते हैं । उनकी मान्यता तो यह भी है कि जो जातियाँ अपनी आवश्यकताओंको न बढ़ायेंगी वे अन्तमें नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगी । इस मान्यता के अनुसार ही पश्चिमके लोग दक्षिण आफ्रिकामें आकर बसे हैं और अपनी अपेक्षा संख्या में बहुत अधिक हन्शियोंको अपने अधीन करके बैठे हैं। उन्हें हिन्दुस्तानके सीधे-सादे लोगोंसे कोई भय कैसे हो सकता है ? अपनी सभ्यताकी दृष्टिसे उन्हें वास्तवमें ऐसा कोई भय नहीं है ? और इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि यदि हिन्दुस्तानी दक्षिण आफ्रिकामें सदा मजदूरोंके ही

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